बुलाकी शर्मा का जन्म 1 मई, 1957 बीकानेर में हुआ । आप राजस्थानी और हिंदी में समान रूप से लिखते हैं । राजस्थानी में कहानीकार और व्यंग्यकार के रूप में प्रसिद्ध शर्मा की पुस्तकें- कवि, कविता अर घराआळी, इज्जत में इजाफो (व्यंग्य संग्रह) और हिलोरो (कहानी संग्रह) चर्चित रही हैं । वहीं हिंदी में आपके व्यंग्य संग्रह : दुर्घटना के ईर्द-गिर्द तथा रफूगीरी का मौसम, कहानी संग्रह : उड़ते बादल की छांह के अतिरिक्त बाल साहित्य की अनेक पुस्तकें प्रकाशित तथा पुरस्कृत हुईं है । आपने संतभ लेखक के रूप में भी ख्याति अर्जित की है ।
पता : सीताराम द्वार के सामने, जस्सूसर गेट के बाहर, बीकानेर
पहला सुख : निरोगी काया
सुख कई प्रकार के होते हैं परंतु, पहला सुख निरोगी काया का माना जाता है। बीमार शरीर होता है तब सुख का नाम सुनते ही गुस्सा आने को होता है। हमारे शरीर को स्वस्थ रखकर हमें सुख के पालने आनंद लेने का उपकार करता है- डॉक्टर। तभी तो डॉक्टर को परमेश्वर का दूसरा स्वरूप माना जाता है। परंतु, कहावत है कि काम पड़्यां कछु और है अर काम सर्या कछु और! प्रत्येक सांसारिक मनुष्य पर यह कहावत खरी उतरती है।
बीमार शरीर होता है तब डॉक्टर परमात्मा का स्वरूप बन जाता है और जब स्वस्थ होते हैं तब डॉक्टर और डाक्टर के पेशे का जमकर कोसते हैं।
मैं भी सांसारिक मनुष्य हूं। डॉक्टर और उसके पेशे को कोसने में मैं भी आप सबसे अलग नहीं हूं। निरोगी काया सुख गिना जाता है और उस काया को बहुत सुखी बनाने के लिए मैं डॉक्टरी पेशे को कोसता रहता हूं। डॉक्टरी पेशा पूरा व्यापार बन गया है. कभी उनको परमेश्वर मानते थे परंतु, अब वे कसाई बने हुए हैं। ऑपरेशन के दौरान किडनी निकल लेते हैं. चाकू-छूरी अंदर रखकर पेट के टांके लगा देते हैं. . .भगवान बचाए ऐसे यमराजों से। परंतु, शरीर जब बीमार हो जाता है जब जाना ही पड़ता है डॉक्टर के पास। मेरा शरीर मलेरिया की चपेट में आ गया।
गली के कीचड़ से भरी नालियों में विचरण करने वाले मच्छर मौके-बेमौके डांस पार्टी करने हेतु मेरे घर भी आने लगे। घर में मेरी उपस्थिति उन्हें खलने लगी। खेलते हुए बच्चों को भी किसी दूसरे का बीच में आना नहीं सुहाता, तब वे मुझे कैसे बर्दाश्त करते। अपनी डांस पार्टी में मुझे खलल करता देखे वे गुस्सा-गुस्सा हो गये। सबसे पहले उन्होंने मुझ पर आक्रमण किया। घर का मुखिया जब मात खा जाता है तो दूसरे अपने-आप हार स्वीकार कर लेगें- शायद, मच्छरों ने यही सोचकर अपने डंकों से मुझे ऐसा चित्त करा कि बिस्तर पकड़ना पड़ा।
सहधर्मिणी को अपने सुहाग की चिंता हुई। टैक्सी में डालकर मुझे सरकारी अस्पताल ले गई।
अस्पताल में एक डॉक्टर और वही मरीजों से घिरा हुआ। मरीजों की भीड़ देखकर सहधर्मिणी घबरा गई। निःश्वास छोड़ती हुई बोली, ‘अरे. इतनी भीड़ में तो नम्बर आना भी मुश्किल है। आपको बुखार आया हुआ है. क्या करें।
टूटी हुई बैंच पर बैठे-बैठे मैंने डॉक्टर की तरफ देखा। सिर्फ डॉक्टर का माथा ही मरीजों की भीड़ में नजर आ रहा था। भीड़ से परेशान डॉक्टर मरीजों का डांट-फटकार रहा था और रोग सुने पहले ही पर्ची पर दवाइयां लिख रहा था।
मलेरिया की चपेट में आए हुए मैंने, इस दृश्य को देखकर आंखें मूंद ली। सहधर्मिणी को प्रत्युत्तर देने की हिम्मत नहीं हुई। ‘डॉक्टर साहब को दिखाने आए हो क्या, भाई साहब!' ये शब्द कानों में पड़े तब आंखें खुली।
सही-सलामत में होता तो कहता कि यह मंदिर थोड़ा ही है, जो दर्शन करने को आया हूं, अस्पताल में तो डॉक्टर को दिखाने के लिए ही आया जाता है।
‘ये बुखार से तप रहे हैं। डॉक्टर साहब को दिखाने के लिए ही आई हूं परंतु।' सहधर्मिणी ने फुर्ती से सारी बात बताई और मरीजों की भीड़ की तरफ देखने लगी।
‘यहां नम्बर आना मुश्किल है बहिनजी!' उस भले आदमी ने बताया। ‘फिर क्या करें भाई साहब!' सहधर्मिणी के स्वर में पीड़ा थी। ‘बंगले दिखा दो ना. अस्पताल के पीछे ही तो है डॉक्टर साहब का बंगला।' भले आदमी ने सलाह दी।….. कुछ सोचकर सहधर्मिणी ने पूछा- ‘वहां कब देखेंगे?' ‘बस आधा-एक घण्टा बाद में' अस्पताल की घड़ी की तरफ देखती हुए जोड़ायत ने शक किया- ‘अभी तो ग्यारह बज हैं। अस्पताल दो बजे तक का बताते हैं।
वह भला आदमी मेरी सहधर्मिणी की बात पर हंसा, बोला- ‘वह चिंता मेरी है बहिनजी मैं आधा घण्टे में आपको साहब से दिखाकर फ्री कर दूंगा। चले मेरे साथ।' बहुत ज्यादा सोचने-विचारने का मौका दिए बगैर वह भला आदमी हमें डॉक्टर के बंगले ले आया। पांच-छह मरीज वहां पहले से ही बैठे थे। बैठे हुए मरीजों ने नजरों से सवाल किया, उनको जवाब देता हुआ भला आदमी मुस्कराता हुआ बोला- ‘बस दस-पंद्रह मिनट में आ रहे हैं डॉक्टर साहब।'
सच में, अस्पताल में मरीजों की भीड़ को छोड़कर डॉक्टर साहब पंद्रह मिनट बाद बंगले पहुंच गए। उनको देखकर मरीजों मरीजों के साथ आए हुए लोगों ने नमस्कार किया, जिनका डॉक्टर साहब ने मुस्कराकर जवाब दिया। डॉक्टर साहब चैम्बर में पधरे।
भला आदमी नम्बर से मरीजों को चैम्बर में भेजने लगा। फिर भी उसने मेरा व मेरी सहधर्मिणी का मान रखा और हमारे से पहले आए हुए मरीजों का नम्बर काटकर मुझे चैम्बर में दाखिला दे दिया। पहले आए हुए मरीजों को यह कहकर- ‘इन भाई साहब की हालत बहुत खराब है. बहिनजी तो इनकी हालत देखकर होश-हवास खो बैठै हैं।'
चैम्बर में दाखिल होते ही डॉक्टर साहब ने इस ढंग से मुस्काराकर हमारा स्वागत किया जैसे वर्षों से हमें जानते हो। टेबल पर बैठाने के बाद पूछा- ‘क्या हो गया साहब, आपके।' ‘जी साहब, मलेरिया हो गया. शरीर तवे की मानिंद तप रहा है और पौर-पौर में दर्द है।' वे हंसे- ‘आप कैसे कह सकते हैं कि मलेरिया है? हो सकता है वायरल हो।'
इतना कहकर उन्हानें े स्टेथेस्कापॅ से छाती और पीठ की जांच की, जीभ देखी। आंखों में निहारा। जांच-पड़ताल करने के बाद उन्होंने नाम पूछा और पर्ची पर दवाइयां लिखने लगे। पर्ची पकड़ाते हुए बोले- ‘ब्लड-यूरिन की जांच कराना जरूरी है। वैस दवा मैंने लिख दी है।'
स्टूल से उठते हुए मैंने पूछा- ‘साहब. फीस।' ‘सिर्फ सौ रुपये।' उन्होंने मुस्काराकर कहा। मैंने सहधर्मिणी की तरफ देखा। उसने ब्लॉउज में फंसाए हुए छोटा-सा पर्स निकाला और उसमें आठ तह जमाए हुए सौ के नोट को निकाला तथा डॉक्टर साहब को पकड़ा दिया। वह मुझे लेकर चैम्बर से बाहर आ गई। बाहर वह भला आदमी खड़ा था। बोला- ‘क्यों साहब, डॉक्टर साहब कैसे हैं?' ‘देव पुरुष हैं भाई साहब. आधी बीमारी तो उनके हंसमुख स्वभाव से ही दूर हो जाती है।' सहधर्मिणी खुश होकर बोली।
अस्पताल में मरीजों पर गुस्सा करने वाला डॉक्टर अपने बंगले के चैम्बर में अचानक हंसमुख और मिलनसार कैसा बन गया, इसी भांति के विचार मन में आने ही लगे थे कि वह भला आदमी बोला- ‘पर्ची दिखाओ तो भाई साहब।'
मैंने पर्ची पकड़ा दी। उसको देखकर बोला- ‘खून-पेशाब की जांच अभी करवा दूंगा. पीछे कमरे में ही इसकी व्यवस्था है. डॉक्टर साहब का बेटा जांच का काम करता है. दवाइयां भी यहीं मिल जाएगी. मैंने आपको कहा था ना भाई साहब कि डॉक्टर साहब बहुत ही सेवाभावी हैं. मरीजों की सेवा हेतु चौबीस घंटें हाजिर रहने वाले।' भले आदमी ने उसी वक्त खून-पेशाब की जांच करवा दी, दवाइयां दिलवा दी। सहधर्मिणी ने अपने छोटे-से पर्स में से रूपये निकालकर दे दिए।
‘रामजी आपका भला करे, भाई साहब।' सारे काम हाथों-हाथ हो जाने से सहधर्मिणी ने भले आदमी को सुखी मन से आशीष दी- ‘आप जैसे सेवाभावी-परोपकारी मनुष्य हैं कहां आज के जमाने में।' भले आदमी ने सकुचाते हुए हाथ जोड़े- ‘ऐसा मत कहो बहिनजी. यह तो मेरा फर्ज था हमेशा ही मैं फर्ज निभाने अस्पताल पहुंचता हूं और वहां की भीड़ से बचाने के लिए मरीजों को लेकर यहां आ जाता हूं. अब आप ही बताओ बहिनजी, भीड़ भरी कशमकश में मरीजों को कभी डॉक्टर सही तरीके से देख सकता है?'
‘नहीं, जी. वहां तो बुखार की जगह पेट दर्द की दवाई लिखी जा सकती है।' सहधर्मिणी ने हामी भरी। ‘पहला सुख निरोगी काया होता है, बहिनजी। फीस के पैसे तो लगते हैं परंतु, डॉक्टर को घर दिखाने से इलाज भी तो अच्छा होता है ना, बहिनजी।' ‘आप सही फरमा रहे हैं, भाई साहब।' सहधर्मिणी बहुत ही खुश लग रही थी। उसने पूछा- ‘परंतु भाई साहब, आप में इस भांति की सेवा करने के भाव कैसे पैदा हुए।' भले आदमी ने डॉक्टर साहब के चैम्बर की ओर हाथ जोड़े और बोला- ‘यह सब इन्हीं डॉक्टर साहब की प्रेरणा से हुआ. अस्पताल में भीड़ में मरीजों को सही ढंग से वे देख नहीं सकते, तब इनको बहुत दुःख होता है। इन्होंने मुझे कह रखा है कि मरीजों का पूरा खयाल रखना है। मैं पूरा खयाल रखता हूं, यह तो आप ही देख रहे हैं।'
‘परंतु भाई साहब, आपकी भी गृह-गृहस्थी है. आप मरीजों की सेवा में लगे रहते हैं . फिर.!' सहधर्मिणी को चिंता हुई। भले आदमी ने फिर से डॉक्टर साहब के चैम्बर की तरफ हाथ जोड़े और बोला- ‘मैंने कहा ना बहिनजी, कि डॉक्टर साहब बहुत ही सेवाभावी हैं. किसी का हक नहीं मारते. सभी का खयाल रखते हैं.।'
सहधर्मिणी आंखों को फैलाकर भले आदमी की कही हुई बातों का मतलब ढूंढ़ने लगी। मैं उसको सचेत करता हुआ बोला- ‘अब घर चलें. इनकी मेहरबानी से सारे काम हो गए.।' ‘मेहरबानी किस की भाई साहब.।' इतना कहकर उस भले आदमी ने आवाज देकर एक टैक्सी वाले को बुलाया और कहा- ‘भाई साहब और बहिनजी को पहुंचाओ. गड्ढे़ आदि का ध्यान रखते हुए धीरे चलाना, अच्छा . हां, किराया भी वाजिब ही लेना, ठीक है।'
टैक्सी वाले को हिदायत देकर उसने हमें टैक्सी में बैठाया और हाथ जोड़कर बड़े ही अपनापन के साथ विदा किया। मार्ग में सहधर्मिणी ने कहा- ‘बेचारा वह भला आदमी नहीं मिलता तो आज आपका दिखलवाना ही मुश्किल था. डॉक्टर भी कितना भला है. आप तो ऐसे ही डॉक्टरों को कोसते रहते हैं.।' मैं मेरी गलती स्वीकारता हुआ बोला- ‘सही कह रही है तू, सारे डॉक्टर एक जैसे नहीं होते. सेवाभावी और उपकारी डॉक्टर है यह. मैं मेरी गलती स्वीकार करता हूं। अब कभी भी डॉक्टर के डॉक्टरी पेशे को नहीं कोसूंगा।'
जोड़ायत धैर्य से बोली- ‘पहला सुख निरोगी काया होता है जी. साले रूपये-पैसे तो हाथ के मैल हैं. फिर से कमाए जाएंगे परंतु, शरीर निरोग रहना चाहिए.।' टैक्सी घर के पास पहुंच चुकी थी।
(साभार: "व्यंग्य यात्रा" जनवरी-मार्च 2010)
जोरदार
ReplyDeleteशानदार
मजेदार
व्यंग्य !
बुलाकी शर्मा जी को बधाई!
बधाई नीरज दइया को भी,वही तो हैँ सूत्रधार !
.चिकित्सा व्यवस्था पर व्यंग्य पसंद आया.बधाई.
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