मेरी पुरस्कृत राजस्थानी बाल-कहानियों की पुस्तक का नाम “
जादू रो पेन”
यानी जादुई पेन है। इसे जादू नहीं तो
क्या कहेंगे कि किसी रचना की पहली पंक्ति,
यहां तक कि किसी
शब्द को चयनित करते हुए भी कुछ सहमा और निरंतर संदेह से जूझने वाला यह लेखक आज
यहां उपस्थित है। आगे कुछ कहने से पूर्व राजस्थानी के संयोजक डॉ. अर्जुनदेव चारण,
परामर्श मंडल,
चयन समिति और पूरे साहित्य
अकादेमी परिवार आभार प्रदर्शित करता चलूं। अंत में आभार औपचारिक लगाता है।
किसी भी
प्रकार का ज्ञान सदैव हमारे आनंद का हनन करता है। बाल साहित्य के संदर्भ में यह
उक्ति कुछ अधिक अर्थवान सिद्ध हुई है। शब्दों की दुनिया में आज अनेक खतरे और संकट
महसूस किए जा सकते हैं। प्रत्येक लेखक अपने शब्दों से एक संसार गढ़ता है। इस
शब्द-संसार के विषय में मैं कहना चाहता हूं कि हमारे गढ़े जाने के बाद,
दूसरे समय में कोई अंतर और अंतराल क्यों होता है। मेरी आकांक्षा ऐसे
शब्द हैं जो मेरे भावों से किसी विषयांतर को दूर रखे। किसी बात का अलग रूप में
पहुंचना अथवा नहीं पहुंचना किस की कमी है? आज भूमंडलीकरण के
इस दौर में बाल साहित्य विमर्श अनिवार्य है। यांत्रिकता और मूल्यों के बदलाव ने
बाल मन को भी नहीं छोड़ा है। ऐसा लगता है कि पुराने अर्थ शब्दों को अलविदा कह रहे
हैं। इस नए समय में कुछ नया करने की आवश्यकता है। युग सापेक्ष सृजन हेतु जहां स्व-मूल्यांकन की आवश्यता है वहीं यह भी सोचना जरूरी है कि क्या हम हमारी
पुरानी दुनिया बच्चों को सौंपना चाहते हैं, या बदलती दुनिया
से मुकाबला करने की जिम्मेदारी और जबाबदेही हेतु उनको
समर्थ बनाना चाहते हैं।
आज मुझे मेरी
बाल-स्मृतियों बुला रही है। उस समय की बहुत सारी बातों को आज याद नहीं किया जा
सकता। वे बहुत सी बातें भीतर कहीं लुप्त हो गई हैं। उस दौर में कभी यह सोचा न था
कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अभिभाषण में मेरा बचपन मुझे आवाज देगा। मेरी अब तक
की साहित्य-यात्रा अनेकानेक विवरणों का रोमांचकारी समुच्चय है। मैं लेखक क्यों हूं?
जब इस सवाल के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मैंने लेखन को
विरासत के रूप में अंगीकार किया है। मेरे पिता साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार
से सम्मानित राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार श्री सांवर दइया से मैंने लेखन की
विधिवत शिक्षा-दीक्षा तो नहीं पाई, बस उनके अध्ययन-कक्ष से
कुछ किताबें पढ़कर कोई बीज बना होगा। बाल पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकालय के प्रति
मेरी रुचि ने जिस मार्ग तक पहुंचाया, उसमें मेरे शिक्षकों और
पिता के साहित्यिक-लगाव ने मुझे वह पर्यावरण दिया। जहां मैं कुछ आधारभूत बातें सीख
सका। मेरे अनुभव ने बल प्रदान किया कि कुछ लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है।
वर्ष 1982 के बाद का कोई समय है जो स्मृति-पटल पर अब भी अंकित है। मेरे पिता हिंदी
शिक्षक के रूप में जिस विद्यालय में सेवारत थे, उसकी नवमीं
कक्षा में मैंने प्रवेश लिया था। एक दिन प्रातः कालीन प्रार्थना सभा में हमें
सूचना दी गई कि सांवर दइया जी को राजस्थानी भाषा, साहित्य
एवं संस्कृति अकादमी का पुरस्कार उनके कहानी संग्रह के लिए घोषित किया गया है। उसी
दौर में कवि कन्हैयालाल सेठिया की कृति “मायड़ रो हेलो”
से मातृभाषा राजस्थानी से लगाव में अभिवृद्धि हुई। साथ ही राजस्थानी
भाषा और साहित्य के उन्नयन के लिए श्री रावत सारस्वत और श्रीलाल नथमल जोशी द्वारा
चलाए गए उल्लेखनीय अभियान भी मेरी बाल-स्मृति में है। राजस्थानी के प्रचार-प्रसार
के उस दौर में जैसे मुझे मेरा कोई सीधा मार्ग मिल रहा था। सच तो यह है कि उस समय
ऐसा लगा कि मैं अब तक किसी असुविधाजनक मार्ग पर था, और जैसे
इन सब बातों-घटनाओं ने मेरी अंगुली मेरी भाषा को थमा दी। मेरे लेखन में लगभग दस
वर्षों का आरंभिक काल बड़ा आनंदमय रहा। ‘जादू रो पेन’ की अधिकांश रचनाएं उसी समय लिखी गई।
मेरी बाल
कहानियों में बाल-स्मृतियों की विभिन्न घटनाएं कहानियों के रूप में प्रकट
हुई है। मुझे लगता है कि बाल साहित्य लेखन के लिए जिस बालमन की
आवश्यकता होती है, वह मुझे अपने घर-परिवार में सहजता से सुलभ
हुआ। राजस्थानी की लोकप्रिय मासिक पत्रिका “माणक” ने इन बाल कहानियों को प्रकाशित कर मुझे बाल साहित्य के लेखक के रूप में
नाम दिया। कुछ बाल कहानियां मैंने बाद लिखी, उसके बारे में
मुझे लगता है उनमें अभिव्यक्त आनंद, मेरे अपने ज्ञान से
मुक्त नहीं है। बालकों के लिए लिखने के लिए बालक बन कर उन जैसी सहजता, सरलता और निश्छलता पाना आवश्यक है।
प्रकाशन-संकट
व पत्र-पत्रिकाओं के अभाव का कारण राजस्थानी भाषा को सरकारी संरक्षण नहीं मिलना
है। कोई लेखक क्यों और किस के लिए लिखें? लगभग
दस वर्षों से अधिक समय ‘जादू रो पेन’ के
प्रकाशन में लगा। इसका प्रकाशन जैसे किसी मृत पांडुलिपि में प्राणों का संचार होना
था, वहीं मेरे बाल साहित्यकार का दूसरा जन्म भी। राजस्थानी
में जयंत निर्वाण, बी.एल. माली, भंवरलाल
भ्रमर, आनंद वी. आचार्य, रामनिरजंन
ठिमाऊ, दीनदयाल शर्मा, नवनीत पाण्डे,
हरीश बी. शर्मा, मदन गोपाल लढ़ा, विमला भंडारी, रवि पुरोहित आदि लेखक बाल साहित्य की
विविध विधाओं में सक्रिय है। यह सच है कि इन वर्षों मैं बाल-साहित्य नहीं लिख
पाया। बाल साहित्य लिखना आज के दौर में बड़ों के साहित्य-लेखन से भी मुश्किल हो गया
है। अनेक प्रश्नों और आशंकाओं ने मुझे घेर रखा है। ऐसा क्यों हुआ? यह तो मैं नहीं जानता, किंतु लगता है कि मैं अब अभय
होकर नहीं लिख सकता। शायद यह भय स्वयं को एक जिम्मेदार लेखक मानने से भीतर लद गया
है। गत वर्षों में मैंने कविता, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र
में कुछ काम करने का प्रयास किया है। मुझे लगता है कि मेरा लेखन मेरे दिवंगत लेखक
पिता को फिर-फिर अपने भीतर जीवित करने और स्वयं को ऊर्जावान करने का उपक्रम है।
वर्तमान दौर में लेखन को कार्य के रूप में सामाजिक मान्यता नहीं है। हमारी चिंता
होनी चाहिए कि समाज में लेखन को पर्याप्त सम्मान मिले।
जटिल से
जटिलतर होते जा रहे इस समय में सरल कुछ भी नहीं, सरलता कहीं भी नहीं। ऐसे में बाल साहित्य लेखन से जुड़ी हमारी
जिम्मेदारियां और अपेक्षाएं निश्चय ही अपरिमित है। यह जिम्मेदारी मैं इस रूप में
भी ग्रहण करता हूं कि बच्चों में आयु-विभेद से जुड़ी जटिलताएं और विभेदीकरण के
बिंदु कुछ अधिक मिलते हैं। हम लिखते तो बच्चों का साहित्य है किंतु अकसर वह किसी
वर्ग विशेष अथवा आयु विशेष के लिए सिमट कर रह जाने की त्रासदी भोगता है।
मेरा मानना है
कि किसी भी युवा, प्रौढ़ अथवा वृद्ध के भीतर का उसका बचपन सदा-सदा
हरा रहता है, और इस रूप में सभी के अंतस में एक बालमन जीवित
रहता है। बाल साहित्य के पाठक केवल बच्चे ही नहीं है। इसमें बड़े बच्चे और बूढ़े भी
शामिल हैं। ऐसे में इस समग्र-पाठक संसार से एक उभयनिष्ट छोटे संसार को हमें
पहचानना है। पाठक के रूप में बालक-बालिका या कुछ चयनित समूह के बच्चों की
परिकल्पना मैं करता हूं। जब मैं लिखता हूं तो मुझे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि मैं
किस के लिए लिख रहा हूं। किसी इकाई के रूप में हर रचना से पहले यह विचार करना मुझे
आवश्यक जान पड़ता है। किसी आदर्श और उभयनिष्ट इकाई को स्वीकारना बाल साहित्य के
परिपेक्ष्य में सरल कार्य नहीं है।
मैं जिस भाषा
और प्रदेश का लेखक हूं वहां मेरे सामने आ रही चुनौतियों का अंदाजा आप इस रूप में
लगा सकते हैं कि एक समय हिंदी के हित में शहीद की गई मेरी मातृ-भाषा राजस्थानी आज
भी रोती-बिलखती है। उसे अपने बच्चों और घर-परिवार से अलग रखा गया है। शिक्षा का
अधिकार अधिनियम साहित अनेक शिक्षा समितियों के प्रबल प्रावधानों के बावजूद
प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत हमारे बच्चे को अपनी मातृभाषा से वंचित रखा गया है।
कुछ सीखने और सहजता से पढ़ने की उम्र में बच्चों का सामना अनेकानेक उलझनों से होता
है। घर की भाषा और स्कूल की भाषा में अंतर है। बच्चे कुंठित और दुविधाग्रस्त है।
उनका सर्वांगीण विकास भाषा के अभाव में कैसे संभव है?
बच्चों के माता-पिता के सामने इन सब बातों की तुलना में बड़ा संकट
रोजगार का है। अभावों में निरंतर जीवनयापन करते परिवारों के बच्चे निरंतर स्कूल को
अलविदा कहते जा रहे हैं। वहां ऐसे समय में कोई जादू काम नहीं कर सकता।
यकीनन जैसा कि
मैंने आरंभ में कहा कि मुझे बचपन में बहुत बाद में अपनी मातृभाषा की अंगुली थामने
का सुख मिला। किसी भाषा को मां के रूप में स्वीकार किए जाने की अहमियत का अहसास
मिलना बहुत जरूरी है। वही अहसास मैं अपनी भाषा में लिख कर अपने नन्हें दोस्तों को
देना चाहता हूं। मैं राजस्थानी में इसलिए लिखता हूं। आज साहित्य अकादेमी के इस मंच
से मेरे प्रदेश के उन सवा एक करोड़ से अधिक बच्चों की तरफ से मैं यह पुरजोर मांग
करता हूं कि उनकों उनके अधिकार दिए जाए। मेरे इस उद्बोधन की अंतिम पंक्ति पर आप
सभी का समर्थन चाहूंगा- क्या हमारी यह मांग जायज नहीं कि राजस्थान के बच्चों की
प्राथमिक शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए।
(साहित्य अकादेमी बाल
साहित्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद दिया गया लेखकीय-संभाषण)
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