राजस्थानी कहानी
मधुर संबंध
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कथाकार : बुलाकी शर्मा
अनुवाद : नीरज दइया
सुबह के दस बजे हैं । मैं अब तक कमरे में कुर्सी पर बैठा एक पत्रिका के पन्ने पलट रहा हूं । आज दफ्तर की छुट्टी है इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं है ।
बाहर आंगन में वे दोनों वाक-युद्ध कर रही हैं । मैं साफ उनकी आवाजें सुनता हूं, लेकिन हमेशा की तरह चुप हूं ।
बर्तन गिरने की आवाज के साथ ही मां की रोबीली आवाज आई- “तेरी आंखें नहीं है क्या ? एकदम नए बर्तन पटक-पटक कर मोच डाले !”
“मैंने कौनसे जानबूझ कर पटके हैं ? मिनख शरीर है । ध्यान रखते-रखते भी गलती हो जाती है ।” उसने कहा ।
मां ने फिर कुछ कहा और वह लगातार जबाब दे रही है । मुझे पता है कि आरंभ हुआ यह वाक-युद्ध एक घंटे से पहले समाप्त नहीं होगा । वह भी लगातार काम करती-करती अपना मुंह चलाती रहेगी । मां उसके बोलने से गुस्सा करती रहेगी । जब मां उसकी सातों पीढ़ियों में नुक्स निकालने लगेगी तब वह हार कर आंसू बहाने लगेगी । इस युद्ध का समापन हमेशा ऐसे ही होता है ।
कुछ देर बाद मां मेरे पास आएगी और उसकी गलतियां बताती हुई कहेगी- “तेरी पत्नी की जबान बहुत लम्बी हो गई है । सास की जरा भी इज्जत नहीं रखती । मन में आए जैसे ही बोलती है । यह मुझे पसंद नहीं हां…। लापरवाही से काम करती है और उस पर जबान भी चलाती है ! जब देखो बर्तन गिराती रहती है । बिना जरूरत आग जलती रहती है, बिना जरूरत बिजली बर्बाद करती रहती है । इस मंहगाई के दौर में ऐसे करेगी तो पैर ऊपर होते देर नहीं लगेगी ।”
मैं कुछ जबाब देने की स्थिति में खुद को नहीं पाता । मैं जानता हूं कि मैंने जरा-सा भी पत्नी का पक्ष लिया तो मां आपे से बाहर हो जाएगी और मुझे जोरू का गुलाम कहने में देर नहीं लगाएगी । मां का स्वभाव ही ऐसा है । मां को किसी का सामने जबाब देना सहन नहीं होता । उसे खुश रखना हो तो उसकी बातें चुप चाप सुनते रहो । जबाब देने से मां का पारा चढ़ जाता है । फिर तो उनका बोलना जैसे बंद होने का नाम ही नहीं लेता । वह मां को पलट कर जबाब देती है इसलिए उन दोनों में ठनी रहती है ।
रात को वह पूरे दिन का लेखा-जोखा मेरे सामने रखेगी । दिन में हम मिल-बोल नहीं सकते । शादी को लगभग एक वर्ष हुआ है । घर में रिवाज है कि दिन के समय वह मेरे कमरे की तरफ भी नहीं आ सकती । उसे बहुत बुरा लगता है यह बंधन । मुझे भी लगता है । पर क्या करें ? अभी तो बड़े भाई साहब भी दिन में भाभी से बतियाते नहीं जब कि पांच-छ्ह साल के उनके बच्चे हैं । हम तो एकदम नए है अभीतक ।
वह हमेशा की तरह कहेगी- “आप चुप चाप क्यों सुनते रहते हो । आप अपने कानों से सुनते हो कि गलती मेरी नहीं होती । मां की आदत पड़ गई है बेवजह गुस्सा करने की । छोटी-छोटी बातों में कमियां निकालती रहती है, बात-बात में मेरे पीहरवालों को बिना काम घसीटती रहती है । मुझ से सहन नहीं होता ।”
“थोड़ा धैर्य रखा कर ।” मैं कहूंगा ।
“कितना धैर्य रखे कोई !” वह गुस्से से कहेगी- “हर बात में मीन-मेख निकालना, अरे वाह ! चन्द्रमा की रोशनी है तो लाईट नहीं जलाओ, कोयले मत जलाओ, गोबर की थेपड़ियो से काम चलाओ ! पन्द्रह दिनों से साबुन से स्नान करती हूं फिर भी कहती है कि हमेशा साबुन लगती हूं । अब बताओ ना कितना धैर्य धारण करू ?
मैं आहिस्ता से कहूंगा- “ देखो, मां का स्वभाव पुराना है…छूट नहीं सकता । तुम तो समझदार हो, पढ़ी-लिखी हो, बना कर रखा कर ।”
“बहुत दिनों तक रखा । अब तो गले तक आ गई, सहन नहीं होता । मैं तो कहती हूं कि राड़ से बाड़ भली । हम अलग हो जाएं ।”
“क्या …! पागल हो गई हो ?” सुनकर मैं गंभीर हो जाता हूं- “लोग क्या कहेंगे ? शादी को एक बरस नहीं हुआ और अलग हो गए । मंझले भाई साहब को भी लोगों ने कितना भला-बुरा कहा……फिर अभी तो बड़े भाई साहब भी साथ रहते हैं । यह अलग बात है कि उनको अपने ट्रांसफर की वजह से मां के साथ रहना नसीब में नहीं रहा है।”
मुझे मालूम है कि वह-कह सुन कर चुप हो जाएगी । वह हमेशा की लड़ाई से बहुत दुखी रहती है । दुखी तो मैं भी रहता हूं पर कोई उपाय नजर नहीं आता । मां का स्वभाव आरंभ से ही ऐसा ही रहा है । जब से मैंने समझ ली है तब से मां को ऐसे ही बोलते देखा है । पहले दादी जी से बोलती थी, फिर भाभियों के साथ और अब मेरी पत्नी के साथ ।
मां में कमी निकालने का अभिप्राय है कि इस घर से हमेशा के लिए नाता तोड़ना । मंझले भाई ने मां के कठोर स्वभाव को जब सहन नहीं किया और भाभी का पक्ष लिया तो उन्हें घर से अलग होना पड़ा था । उन्हें अलग करते समय कुछ नहीं दिया ! सबको पता है कि पिता जी के पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है । चार-पांच मकान है उनके नाम । नकद धन भी काफी है । परन्तु पिता जी भी मां के स्वभाव के आगे लाचार है जैसे वह कहती है करते हैं ।
बड़े भाई साहब ने अपनी मर्जी से जानबूझ कर बहर तबादला करवा लिया है । यह मैं जानता हूं । ऐसे तो साथ होने का दिखावा करते है और अलग रह रहे हैं ! भाभी ने एक बार कहा था- “सरकार समझदार है । घरवालों से दूरियां बना देती है, दूरी से मधुर संबंध बने रहते हैं ।”
मुझे भी लगता है ऐसे ही करना होगा । अलग होने की गलती मैं नहीं करूंगा । एक तो मंझले भाई साहब जैसी दुर्गति हो जाएगी और ऊपर से जग-हंसाई अलग कि पत्नी के आते ही मां से अलग हो गया ।
यह गहरी बात वह नहीं समझ रही है इसीलिए उसे बारबार मैं धैर्य रखने की सीख दे रहा हूं ।
मैं इस कोशिश में अवश्य हूं कि कहीं बाहर तबादला करवा कर मुक्त हो लूं फिर कभी कभार मिलना होगा और संबंध मधुर बने रहेंगे ।
कथाकार : बुलाकी शर्मा ; अनुवाद : नीरज दइया
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नीरज दइया
द्वारा- सूरतगढ़ टाइम्स,
पुराना बाजार बस स्टैंड़,
सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)
Mob.: 9461375668
E-mail : neerajdaiya@gmail.com
नेगचार पर बुलाकी शर्मा का व्यंग्य देखें
बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बधाई.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग प् भी पधारने का कष्ट करें.
सँबँधोँ की मधुरता को शब्दोँ के गहनोँ से लादने वाले स्वर्ण कलम के धनी भाई सा'ब बुलाकी जी शर्मा को प्रणाम ।
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