जगदीश प्रसाद सोनी री लघुकथा
जगदीश प्रसाद सोनी
अनु. नीरज दइया
इस बार बहुत दिन हो गए हैं । गांव जाकर नहीं आया, क्या मालूम घर पर सब कैसे होंगे । मां और बाबूजी तो चिंता ही कर रहें होंगे, पर समय ही नहीं मिलता- क्या करूं ? वह अपने मन में सोचता रहा ।
शहर की नौकरी में जल्दी से छुट्टी भी तो नहीं मिलती । फिर एक-दो दिन की छुट्टी में बच्चों को इधर से उधर पटने में भी कोई सार नजर नहीं आता । इन को छोड़ कर अकेले भी जाया नहीं जा सकता । अच्छे झंझंटों में फंसा हूं !
- हेलो, कौन.... मां...... ! हां मां पांवधोक । आ गई तुम ! मैं हरी बोल रहा हूं जयपुर से । बाबूजी के कैसे हैं... ? अच्छा.... हां छोटू टाइम पर स्कूल तो जाता है ना ? गांव में बरसात पानी है या इस बार भी अकाल है .....।
इतनी देर में जैसे वह अपनी मां, बाबूजी और पूरे परिवार के साथ बैठा था और सब से राजी-खुशी की बातें कर रहा था, पर टंगी हुई पट्टी पर कम्प्यूटर से बढ़ते बिल को देख कर उस का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था, वह बहुत ही जल्दी-जल्दी बोला था मगर बढ़ते रुपए.....। जल्दबाजी में वह मां की तबियत का हाल भी पूछ नहीं सका ! और अंत में वह थका-सा बोला- अच्छा मां अब फोन रखता हूं ।
रिसीवर रखते हुए उसे लगा कि मानो मन के तार अलग-अलग हो गए हैं । अब वह कहां और उसकी मां कहां !
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