Sunday, February 07, 2021

प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया

  • साक्षी रहे हो तुम (काव्य-कृति) डॉ. मंगत बादल
  • संस्करण :2020 ;  पृष्ठ : 80 ; मूल्य : 150/-
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

            मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- साक्षी रहे हो तुमअनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-

            हे अनंत! हे काल!

            महाकाल हे!

            हे विराट!

            यह महायात्रा चल रही कब से

            नहीं है जिसका प्रारंभ

            मध्य और अंत

            केवल प्रवाह...

            प्रवाह!

             यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।  

गगन, पावक, क्षिति, जल

और फिर

चलने लगे पवन उनचास

निःशब्द से शब्द

आत्म से अनात्म

सूक्ष्म से स्थूल

अदृश्य से दृश्य

भावन से विचार की ओर।

            निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-

साक्षी रहे हो तुम

इन सब के होने के

पुनः लौट कर

बिंदु में सिंधु के

तुम ही तो हो

ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता

पालन कर्त्ता विष्णु

तुम ही आदिदेव

देवाधिदेव! शिव!

त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!

            यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।

कौन है मेरे होने

या नहीं हूंगा तब

कारण दोनों का

साक्षी हो तुम, बोलो!

रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!      

            यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।

आत्मा भी क्या

आकार कर धारण

शब्द का कहीं

बैठी है

अर्थ की दीवारों के पार?

            इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-

मृत्यु-भीत मानव का

बैद्धिक-विलास

कोरा वाग्जाल मृगजल...

या प्रयास यह उसे जानने का

समा गया जो

गर्भ में तुम्हारे

छटपटा रहा किंतु

मनुष्य के

ज्ञान के घेरों में आने को।

            जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।

            अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!

            यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को काल महाकाव्यके रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप मनुष्यको जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।



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