Monday, May 15, 2017

देवकिशन राजपुरोहित री दो व्यंग्य पोथ्यां रो अपरेसन / डॉ. नीरज दइया

    राजस्थानी रा चावा-ठावा साहित्यकार-संपादक देवकिशन राजपुरोहित सूं म्हारी जाण-पिछाण म्हारै डॉक्टर बणण सूं बरसां पैली हुई। अबै जे किणी डिग्री रै पाण डॉक्टर बणग्यो अर आज जे डॉक्टर बाजूं तो ई राजपुरोहितजी खातर म्हैं नीरज हूं अर नीरज ई रैवणो चावूं। बै म्हनै नांव सूं ई बतळावै अर जे कदैई किणी मूड में डॉक्टर कैवै तो म्हैं चिमकूं अर विचारूं कै चूक कांई हुयगी। देवकिशन राजपुरोहित रो माइतपणै अर मोटै हियै रो भाव सगळै रचनाकारां खातर देखण नै मिलै। सगळा नै लखावै कै बै म्हारा निजू हेताळू है। बां रो मिनखपणो कै मन रा तार मन सूं झट जुड़ जावै अर सदा जुडिय़ोड़ा रैवै।
    देवकिशन राजपुरोहित सूं म्हारी ओळख भाई शंकरसिंह राजपुरोहित कराई। जद बै आज आळै दांई धोती-चोळै अर दाड़ी-मूंछा आळा बाबोजी नीं, सफारी सूट में फबता निमूछिया सफाचट राजपुरोहितजी हा। म्हैं चेतै करूं, बरस 1994 जद बांरो पैलो राजस्थानी उपन्यास ‘सूरज’ छप्यो हो। शंकर साथै म्हैं पैली बार जद बां सूं मिल्यो तद बांरी अर म्हारी उमर में लगैटगै चौबीस बरसां रो पाको आंतरो हुयां ई बै उमर रा पगोथिया फादता-फादता साव नजीक आय’र घणै आव-आदर अर मीठी मनवार साथै मिल्या। उण दिन सूं अपणायत री बेल तर-तर पांगरती गई अर आज लखावै कै म्हांरा मनां मांय जिको रिस्तो जीवै बो फगत लेखक-लेखक का लेखक-आलोचक रो नीं हुय’र किणी लारलै जलम रो उकता-चूकता है। जाणै मनां रै खेल में दुभरिया लड़ग्या हुवै।
    देवकिशन राजपुरोहित बरसां पैली मनवार करी कै ‘सूरज’ माथै कीं लिखूं, उण टैम म्हैं लिख्यो। उण टैम बै नामी पत्रकार-संपादक अर साहित्यकार हा अर आज जद बां री तीन दरजण सूं बेसी पोथ्यां साम्हीं आ चुकी तद बो नाम साहित्य रै इतिहास नै घोटणो पड़ग्यो। आधुनिक साहित्य रै इतिहास मांय आज देवकिशन राजपुरोहित एक साहित्यकार रूप आपरी ठावी ठौड़ कायम करी है। दूजी बात उण टैम म्हैं टाबर हो अर आज पग में मनै-गनै माइतां री जूतियां पूरी आवण लागगी है। माइतां आगाड़ी टाबर सदीव टाबर ई रैवै पण अेक उमर पछै बो माइतां भेळै लैण में बैठण लाग जावै।
    ‘देवकिशन राजपुरोहित अभिनंदन ग्रंथ’ रा संपादक मानीता मनोहरसिंह राठौड़ कीं लिखण री मनवार करी तद हूंस ही कै कीं जरूर लिखणो है पण बेसी बगत लागग्यो अर भगवान री दया सूं ठेसण सूं गाडी छूटी कोनी। मतलब ग्रंथ हाल प्रकाशित कोनी हुयो। जाणै म्हनै ई उडीकै हो कै कद म्हैं लिखूं अर कद ग्रंथ रा छेकड़ला पाना पूरा हुवै। बिचाळै देवकिशनजी, राठौडज़ी अर शंकर रा केई तगादा ई आया, पण म्हैं लिखण री मनगत हुया थका कीं लिख नीं सक्यो। कांई लिखणो ई कोई जोग हुवै कै जोग हुयां ई लिखीजै।
    साची ओ जोग ई है कै ‘म्हारा व्यंग्य’ अर ‘निवण’ दोय पोथ्यां रो ‘अपरेसन’ करण रो दिन आयग्यो। ‘अपरेसन’ सबद म्हारो कोनी। अठै ओ दाखलो जरूरी लखावै— ‘‘घणखरा आलोचक व्यंग्य विधा नैं न्यारी निकेवळी विधा पण मानण नै त्यार नीं है। वै व्यंग्य नैं ललित निबंध कैय’र पूरी विधा नैं ई खारज करै, पण अबै तो ललित निबंध कठै पड़्या है? हां, जिका आलोचक व्यंग्य विधा नैं नीं मानै अर व्यंग्यकार नैं व्यंग्यकार नीं मानै, म्हैं तो उणां नै आलोचक ई नीं मानूं तो बै म्हारो कांई बिगाड़ लेसी? घणा सूं घणो बै म्हारी पोथियां रो अपरेसन ई तो करैला, भलांई करै, अठै कांई फरक पड़ै है? पछै म्हैं आ कैवूं कै व्यंग्यकार तो खुद ई सै सूं मोटो आलोचक है। आलोचकां रो ई आलोचक, जणां बै मतै बण्योड़ा आलोचक कांई करसी?’’
    म्हैं व्यंग्य नै न्यारी निकेवळी विधा मानूं। म्हैं व्यंग्य नै ललित निबंध कैय’र खारज कोनी करूं। अठै आं दोय ओळियां रो अरथाव कै देवकिशन राजपुरोहित म्हनै आलोचक मानै। म्हैं बां घणखरा आलोचकां में सामल कोनी जिका व्यंग्य नै व्यंग्य कोनी मानै। म्हैं राजपुरोहित नै पूछियो कै म्हनै आलोचक मानो का कोनी मानो। बै बोल्या कोनी। दूसर, तीसर अर चौथी बार फेर पूछियो कै मानो का कोनी? फेर ई बै कीं नीं बोल्या फगत मुळक’र रैयग्या। म्हैं आलोचक हूं अर राजपुरोहित जी रो कीं नीं बिगाड़ सकूं, बस बां रै हुकम सूं पोथियां रो अपरेसन करण नै हाजर हुयो हूं। ओ अपरेसन अेक मोटै आलोचक रो छोटो आलोचक कर रैयो है। म्हैं व्यंग्यकार कोनी अर राजपुरोहितजी मुजब व्यंग्यकार मोटो आलोचक हुवै। म्हैं आ बात ई मान लेवूं कै व्यंग्यकार मोटो आलोचक हुवै तो सार ओ कै ‘व्यंग्यकार मोटो डॉक्टर हुवै।’
    म्हनै लखावै म्हारै सवाल साम्हीं डॉ. देवकिशन राजपुरोहित रै मून रो अरथाव बै ‘अपरेसन’ करावणो चावै, कोई डॉक्टर खुद रो अपरेसन खुद नीं करै। ऊपर दाखलै में आप बांच्यो कै देवकिशनजी लिख्यो— ‘अठै कांई फरक पड़ै।’ म्हारी दीठ में आ घणी हिम्मत अर काळजै री बात है, क्यूं कै हरेक अपरेसन में पीड़ जरूर हुवै। पीड़ मसीन रै तो हुवै कोनी, हुवै मिनख रै अर हरेक लेखक असल में लेखक इणी खातर हुवै कै बो मिनख हुवै अर मिनख बण्यो रैवणो चावै। आज रै बगत मोटी अबखाई आ कै मिनख नै मिनख बणायो राखण रा जतन बरसां सूं साहित्य करै, फेर ई मिनख मिनखपणो छोडतो जावै। बो भूलतो जावै कै मिनखपणो कांई हुवै अर साहित्य खासकर व्यंग्य-साहित्य सूं ओ काम सांतरै तरीकै सूं करणियां में अेक जसजोग नाम डॉ. देवकिशन राजपुरोहित रो ई है।
    च्यार बीसी सूं बेसी व्यंग्य लिखणियां देवकिशन राजपुरोहित रा दोय व्यंग्य संग्रै— ‘म्हारा व्यंग्य’ (2009) अर ‘निवण’ (2012) म्हारै साम्हीं है। पैली पोथी म्हारा व्यंग्य में भूमिका रूप जिका पांच पाना है बै सागण दूजी पोथी निवण में ‘म्हारा व्यंग्य, म्हारी बात’ नांव सूं छव पानां में बांच सकां। दोनूं में फरक बस इत्तो है कै राजस्थानी व्यंग्यकारां रै नांवां में केई नवा नांव सामिल करीज्या है, भूमिका लेखक अर बीजां रो आभार प्रगट करीज्यो है। आ समालोचना ई है जिण में अेक रचनाकार दूजै साथी रचनाकार साम्हीं वाजिब सवाल राखै, जिण नै देवकिशनजी व्यंग्य री भाषा में अपरेसन कैवै।
    देवकिशन राजपुरोहित री भाषा री बात करां तो गीरबो कर सकां कै लोक भाषा रो सांवठो प्रयोग समरूपता नै परोटतां हुयो है। किणी बीजै संदर्भ में नामी निबंधकार जहूरखां मेहर री कैयोड़ी अै ओळियां साव खरी लखावै— ‘‘अेक-अेक विचार आप आपरी ठावी ठौड़ बिड़ीज्योड़ो ओपता-फबता, सबदां रै आसरै घणै असादार ढंग सूं पढाक नै पुरसीज्या है। ओखाणां-कहावतां रै बगार सूं पढणहार नै स्वायै स्वाद रा सबड़का आवै।’’
    लोकजीवण, रूपाळी संस्कृति साथै मिनखजूण रा काण-कायदां व्यंग्य मांय केई-केई बानग्यां आपां साम्हीं राखै, जिकी घणी असरदार अर लांबै बगत तांई याद रैवणजोग कैयी जाय सकै। चावा कवि भगवतीलाल व्यास ‘निवण’ पोथी रै फ्लैप माथै लिखै— ‘‘देवकिशन राजपुरोहित तीजी आंख रा धणी है। आ तीजी आंख इज व्यंग्यकार री असली पंूजी व्हिया करै, जिणरै पाण वो सगळो कीं देख लेवै, जिण नैं दो आंख्यां सूं देखणो घणो दौरो व्है।’’
    दोनूं पोथ्यां में व्यंग्यकार देवकिशन राजपुरोहित रा खुद रा व्यंग्य विधा अर विगसाव पेटै जिका विचार प्रगट हुया है उण सूं सफीट कैयो जाय सकै कै व्यंग्य अर बिना व्यंग्य री ओळी री परख रा बै पक्का पारखी है। रामायाण-महाभारत सूं लेय’र लोकसभा-विधानसभा तांई, घर-परिवार अर समाज रा सगळा दीठावां री बात ‘म्हारा व्यंग्य, म्हारी बात’ में लेखक करी है। हिंदी-अंग्रेजी अर राजस्थानी व्यंग्य रै विगसाव पेटै ई आपरो चिंतन-मनन जसजोग कैयो जाय सकै।
    आलोचक डा. किरणचंद नाहटा ‘निवण’ पोथी री भूमिका मांय लिख्यो— ‘आपरै आसपास रै परिवेश नैं प्रधानता देवण रै कारण आं रो दायरो तो जरूर सीमित हुयग्यो है पण इण ही गुण रै कारण वांरी प्रामाणिकता भी असंदिग्ध कैयी जा सकै है।’ कथीजै कै दुसालै में लपेट’र जूतो मारणो असल व्यंग्य हुवै। दायरो सीमित हुवणो कैय’र ई इण नै गुण गिणावणो अेक व्यंग्य है। व्यंग्य अर आलोचना में आंतरो बस इत्तो है कै व्यंग्य आळो दुसालो आलोचक रै नैड़ो-आगो कठैई कोनी हुवै। देवकिशन राजपुरोहित रो दायरो केई-केई कारणां सू बीजै लेखकां करता मोटो अर लांठो कैयो जावैला। बै स्कूल में मास्टरी करी, पत्रकार-संपादक री जूण देखी-भोगी अर लेखक रूप लांबी अर सतत साधना रै मारग चालतां केई अनुभव लिया। देस अर परदेस रै समाचारां नैं सांभणो अर ठेठ ग्रामीण जीवण पछै शहरी जीवण देखणो-समझणो, प्रामाणिक यायावरी करणी हरेक रै बस री बात कठै!
    बिणजारो रा संपादक अर चावा व्यंग्यकार नागराज शर्मा देवकिशनजी री पोथी ‘म्हारा व्यंग्य’ री भूमिका मांडता लिख्यो— ‘‘व्यंग्य विधा अेकली नीं चालै। साथ-साथ हास्य री बैसाखियां री जरूरत हुवै। म्हारी समझ में व्यंग्य साहित्य री हरेक विधा में होय सकै है। कहाणी, उपन्यास, लेख अर लघुकथावां में व्यंग्य होय सकै है।’’ देवकिशन राजपुरोहित रै व्यंग्य में हास्य रो पुट ठौड़-ठौड़ मिलै पण हास्य सूं बेसी जठै-जठै मर्म री बात है बठै मूळ में पीड़ ई देखी जाय सकै। खुद लेखक रो मानणो है कै व्यंग्य रो राजस्थानी में असली अरथ चूंटियो हुवै, तो दरद हुवणो ई लाजमी बात है।
    कवि-व्यंग्यकार नागराज शर्मा व्यंग्य रा दोय रूपां कानी संकेत करै। अेक मूळ व्यंग्य हुवै अर अेक किणी विधा में रचना रै गुण रूप व्यंग्य हुवै। व्यंग्य री दोनूं पोथ्यां में दोनूं भांत रा व्यंग्य मिलैला। आलोचना रो अठै सवाल ओ है कै कांई लघुकथा में व्यंग्य हुवै, तो उण नै व्यंग्य विधा में मानां का लघुकथा विधा में ई राखां? इणी ढाळै लघुकथा सबद री ठौड़ आं दोनूं पोथ्यां रै संदर्भ में संस्मरण, कहाणी अर निबंध पेटै ई सागण सवाल कर सकां। व्यंग्य विधा जरूर है, पण उण विधा मांय न्यारी विधावां जियां लघुकथा अर संस्मरण आद नै  व्यंग्य भेळै राखणा ठीक कोनी मानीजैला।
    देवकिशन राजपुरोहित आपरी जीयाजूण अर देखी-सुणी बातां माथै छोटा-छोटा कीं प्रसंगां सूं यादगार संस्मरण लिख्या है जिणां मांय केई जगां व्यंग्य रो भाव ई प्रमुखता सूं निगै आवै, पण बां नै संस्मरण कैवणो ई ठीक हुवैला क्यूं कै लेखक बां नै रचती वेळा संस्मरण कैवण-सुणावण री बुणगट मांय ई रचै। कोई पण संस्मरण जद व्यंग्य रै रूप मांय रचीजै तद उण री बुणगट मांय निबंध रो भळको आवणो जरूरी मानीजै। इणी ढाळै व्यंग्य रै नांव केई लघुकथावां ई आं संकलनां री सोभा बधावै। दाखलै रूप बात करां तो ‘म्हारा व्यंग्य’ री रचना ‘खतरनाक मोड़’ री देखां—
    ‘‘म्हारै स्कूल जावण री वेळा व्हैती ही अर अठीनै बाबो चेतनपुरीजी आयग्यो। बो बोल्यो— मास्टर! थनैं अबार रो अबार म्हारै साथै चालणो पड़सी। म्हैं उणां नैं बतायो कै म्हैं सिंझ्या रा आय जासूं। थे पधारो। थारी कुटिया आय जासूं। हायर सैकेंडरी स्कूल में वेळासर पूगणो पड़ै। छोटी स्कूल व्हियां तो गौत ई मनाईज सकै है।’’
    आ रचना इण ढाळै संस्मरण री बुणगट में चालू हुवै अर दोय स्कूल री बातां मांय लेखक जिको चूंटियो बोडै़ उण में व्यंग्य रो भाव देख सकां। आ छोटी-सी रचना मोड़ नै मोड लिखण माथै संस्मरण रूप अेक यादगार रचना है, अशुद्ध लिखणो अर बांचणो मूळ अबखाई लेखक परोटै। इण मांय बाबावां रै धीजो अर गाढ नीं राख’र छोटी-सी बात माथै बिदकण री बात ई सिरै रूप मांय साम्हीं आवै। ‘आगे खतरनाक मोड है।’ ओळी आयां बांचणियां रै हियै मुळक सांचरै कै ठेठ राजस्थानी अर हिंदी रो आंतरो ई चौड़ै आवै। छेकड़ली ओळियां देखो— ‘‘आपणी कुटिया कनै जिको घुमाव है, उणसूं मोटरां आळां नै सावचेत करण सारू ओ बोर्ड लगायो है। बाबाजी राजी व्हैगा’र बोल्या— भाई! म्हैं तो जाणा कोनीं। म्हैं इण संत री भोळप जाणतो हो। अबै ई केई वेळा जद ‘ड़’ नैं ‘ड’ लिख्योड़ो देखूं तो लिखणियां माथै रीस आवै।’’ लेखक री आ रीस अेक पीड़ा रै रूप मांय देख सकां, इणी खातर अठै इण संस्मरण री खासियत जरूरी व्यंग्य रूप गिणा सकां। व्यंग्य रो असल काम समाज री तकलीफ अर बुराई नै उजागर करणो हुवै।
    इणी ढाळै री दूजी यादगार रचना रो दाखलो ‘निवण’ संग्रै सूं देखणो हुवै तो ‘नाचणै जाणो है’ री बात करां। आ रचना किणी साच रै सायरै ऊभी दीसै, जिण मांय जेईअेन साब नै अफसर नाचणै जावण रो हुकम देवै अर बै नाचणो जाणै कोनी अर बां नै आ ई ठाह कोनी हुवै कै नाचणो गांव रो नांव है। नाचणा गांव अर नाचणा क्रिया बिचाळै रचीज्यै इण छोटै आकार रै संस्मरण में हास्य व्यंग्य रो भाव ई प्रमुख मिलै। 
    लघुकथावां री बात करां तो ‘डरगी’ अर ‘रेजगी’ दोय रचनावां नै दाखलै रूप राख सकां। आं दोनूं में रेल जातरा रा छोटा-छोटा कथात्मक प्रसंग है, सो लघुकथा विधा रै पाळै बेसी फबती लखावै। अठै कैवण रो भाव ओ नीं है कै लघुकथा रूप व्यंग्य नीं लिखीज सकै का किणी लघुकथा नै व्यंग्य रै पाळै मांय नीं राख सकां। देवकिशन राजपुरोहित मोटै काळजै रा मिनख है अर जे बै व्यंग्य विधा रै चकारियै मांय संस्मरण का लघुकथावां नै ई सामिल करै तो म्हनै का किणी नै क्यूं अैतराज हुवैला। बां री पोथ्यां है, बै दावै जियां कर सकै।
    देवकिशन राजपुरोहित रै व्यंग्य-संग्रै ‘म्हारा व्यंग्य’ रा केई व्यंग्य कथात्मकता सूं रच्या बस्या है। जियां ‘म्हारी सोगसभा’ में लोक देखापै रा केई कूड़ साच बण’र साम्हीं आवै। लेखक तीरथ करण नै गयोड़ो हुवै अर पाछो आवै तद उणनै ठा लागै कै अखबार वाळां री गळती रै कारण किणी दूजै मिनख री मौत नै उणरै नांव खताय दीनी है। इण आलेख में लेखक नै खुद री सोगसभा देखण-सुणण रो सुख मिलै। बै लिखै— ‘‘म्हैं बगनो व्हियोड़ो सुणै हो। जिका म्हारा अणूता ई दुसमीं हा, बै डुसक्यां भर-भर कैवै हा, आज म्हैं उणां नै मझधार में छोडग्यो। केई बतायो कै पत्रकारिता रो सूरज आंथग्यो, तो केई कैयो कै आज इण समाज रो अेक तारो टूटग्यो।’’
    इणी भांत संग्रै रा केई व्यंग्य आपरै नांव सूं बांचणिया नै घणा उमाव सूं भर देवै, जियां अेक व्यंग्य है— ‘म्हारी भायलियां’। देवकिशन राजपुरोहित री रचनावां में आत्म-कथात्मक भाव अर बातपोशी कीं बेसी हुवण सूं बांचणियै नै लखावै कै बै जरूर कोई जीवण-प्रसंग री मजेदार या रसीली बात म्हारी भायल्यां रै मिस साम्हीं राखैला। वै आपरी किणी पण रचना में पाठकां नै निरास नीं करै।
    देवकिशन राजपुरोहित खुद डॉक्टर है, वै किणी रो ई अपरेसन खुद कर सकै अर म्हारी ई बारी दावै जद आ सकै। म्हनै डर लागण लागग्यो है कै म्हैं इत्ती चीर-फाड़ कर ली। अबै स्सौ सींवण में ई सार है। सार री बात आ है कै देवकिशनजी राजस्थानी रा लूंठा लेखक है जिका न्यारी-न्यारी विधावां माथै कलम चलावै अर चलावता रैवै— आ हियै सूं म्हारी कामना। बां सूं अरज कै आप सूं छोटा डाक्टरां री चीर-फाड़ री गिनार नीं करैला। ‘निवण’ पोथी री पैली रचना ‘निवण’ में बै सगळा नै निवण करै, जिण री दरकार कोनी। म्हारो कैवणो ओ है सा कै आपरो खुद रो रूप-रंग अर डील-डौल इसो है कै हरेक सामलो निवण करसी। म्हैं ई निवण करणियां मांय हूं अर लेखक रै साथै-साथै आप बांचणियां नै ई घणै मान निवण करतो अरज करूं कै म्हारै इण अपरेसन नै कूडिय़ो अपरेसन जाणजो अर साच मानजो म्हारी दीठ में तो असल डॉक्टर बांचणिया हुवै। अबै आपरी मरजी कै आप अपरेसन करो का नीं करो, पण पक्कै पतियारै सेवट अेक बात जरूर कैवणी पड़ैला कै देवकिशन राजपुरोहित राजस्थानी रा अेक बेजोड़ गद्यकार है।
००००

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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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