धीरज
आपां सगळां जाणां- जूंण रो ’ऐंड’ पण तो ई खथावळ नीं करां, जीवां जूण नै जूण री गत । जाणां- छेकड़ में कीं नीं बचैला, सिवाय ओळूं-बिरछ रै ; का फेर बचैला कीं सबद जिका सूं कोई कवि बणावैला- ओळूं-बिरछ ।
म्हैं परखणो नीं चावूं- आप रो धीरज, क्यूं कै म्हैं आगूंच जाणूं- आप रो धीरज है आप मांय ; बिंयां आप सगळी बातां सगळा भेद एक चुटकी में ठाह करणा चावो पण कविता री तीजी ओळी उतावळ ठीक कोनी ।
माफ करजो, आ कविता जूण दांईं फगत दो ओळी री है, जिण मांय सूं एक ओळी म्हैं मांड दीवी अर दूजी ओळी आप नै मिल जावैला ; म्हैं आगूंच कैयो नीं- धीरज है आप मांय । बा ओळी अचेत पड़ी है आपां री ओळूं मांय इण पैली ओळी रै विजोग मांय ।
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प्रेम
म्हैं करूंला प्रेम, पण प्रगट नीं करूंला । जाणूं कोई नीं रोक सकै प्रेम नै बो जठै-जद चावै प्रगट होवै, प्रगट होवण री सगळी सगती हुवै प्रेम मांय अर बा सगती जे म्हैं लुको सकूं तो सफळ होवैला म्हारो प्रेम ।
म्हैं नीं बता सकूं प्रेम री इकाई, सो म्हैं प्रगट नीं करूंला- म्हारो प्रेम ।
म्हैं कर लियो प्रेम अटकता-भटकता, संकता-संकता क्यूं कै म्हैं नीं चावतो हो प्रेम अर म्हैं आगूंच कर चुक्यो हो प्रेम ।
किणी प्रेम रै माप सूं ई करी जा सकै परख प्रेम री, पण म्हैं नीं चावूं । मोलावणो-तोलावणो हुयां प्रेम री जान निकळ जावै । सो इण नांव बिहूणै प्रेम नै लुको सकूंला तद ई सफळ होवैला प्रेम ।
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नाटक
आ जूण एक नाटक है, पण म्हैं कलाकार कोनी । फेर इण रंगमंच माथै कांईं हूं म्हैं ? माडाणी मुळकणो, हंसणो अर नकली रोवणो म्हारै बस री बात कोनी । कूड़ सूं चिड़ है म्हनै, घणैमान सूं अरज है कै म्हनै फगत म्हारै हाल मांय मस्त रैवण दो ।
आलोचक बंधु ! सिरजक भाईजी सूं करजो अरज कै कथा मांय गैर-जरूरी किरदार जूण रो स्वाद बिगाड़ै । म्हैं कैवूंला आपां रै सिरजक नै थांरै बारै मांय कै चांकैसर राखै अक्कल थांरी क्यूं कै थानै दाळ में पैल-पोत कांकरो जोवण री कुबाण पड़गी है । जे कदैई कदास थांनै नीं लाधै कांकरो, तो कैवो- पूरी सीझी कोनी दाळ । थे काढो ऐब माथै ऐब- कदैई मिरच-मसालै री कमी नै लेय’र कूको । माफ करजो ! म्हारो कैवणो बस इत्तो ई’ज है कै थे खुद रो स्वाद सगळा माथै मती थोप्या करो ।
म्हैं पलटू म्हारी बात- जद आपां सगळा हां रंगमंच माथै, तो हा सगळा ई पक्का कलाकार, भलाई खुद नै माना का ना माना । आ रचना है एक कविता रै भेख अर म्हैं आपनै किणी रै कैयां सूं नीं, खुद कैय रैयो हूं- कै जद आ जूण है एक नाटक तो आपां बचां खुद रै नाटक सूं ।
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इंदर-धनुस
इंदर-धनुस जोयां नै बरसां रा बरस बीतग्या । अकाळ अर बिखै री गंगरत टाळ म्हारा कवि, बाकी कीं दाय ई कोनी करै- कविता लिखण खातर । एम. एससी. पास म्हारो मास्टर भायलो कैवै- धूड़ है भणाई-लिखाई नै, आ कांईं काम ई कोनी आवै ।
इंदर-धनुस रै सात रंगां मांय किसो रंग कठै किसी कूंट भरीजैला- गैरो का फीको ? आ तो म्हैं जाणूं ई कोनी । फेर कविता मांय सजावट रै समचै बिना सोच्या-समझ्यां क्यूं आ बिसादी बात टोर दी ! जूण रा रंग भासा सूं होवै अर बा आपां पाखती कोनी,
सो रंग ई कोनी आपां रा कवियां पाखती । आपां बिखै अर काळ री मार माथै मार खावता कविता नै उणी मारग टोर दी- बस सतसई बणावण री हथोटी झाल लीवी । म्हैं म्हारै छोरै नै दे दीवी खुल्ली छूट- बणा थारी मरजी रा फोटूड़ा अर भर उणा मांय दाय आवै जिको रंग... थारी मरजी मुजब ।
इनदर-धनख पेटै छेहली बात, म्हारो छोरो कैवै- ओ म्हारो हाथी हरो है । म्हैं बरजू कोनी । काळो अर धोळो ई नीं लाल-हरो-नीलो अर पीळो भी हो सकै है हाथी, पण बो बेगो ई जाण लेवैला आप री भूल । म्हैं कैवूं म्हारै छोरै नै कै थूं भारत रो झंडो तिरंगो बणावणो सीख लै, अर जिकी भासा थारै रगत रळियोड़ी है उण मांय केसरिया रंग का काळो-धोळो-हरो रंग ना लमूटै । राखजै सावचेती !
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मूंढै पाटी
म्हैं म्हारै दुख बाबत कीं कैवूं किंयां ? छत्तीस बरसां सूं म्हैं म्हारै मूंढै तो पाटी बांध्योड़ी है । इत्ता बरसां पछै ई म्हांरी गूंगी जात नै थे ओळख नीं सूंपी ।
म्हैं लिखी जिकी बातां, थे बांची कोनी । म्हैं जिको कीं कैवूंला, बो सीधो-सीधो थे समझ नीं सकोला ; क्यूं कै थे म्हारी भासा जाणो ई कोनी अर जाणो ई हो..... तो मानो कोनी, थां नीं मानण री आगूंच धार राखी है । सुणो ! थे नीं मार सको म्हारी भासा नै । बां म्हांरै लोही मांय है अर थे कद तांई पीवोला लोही ?
कवि का इण समाज रै अंस रूप म्हैं करूंला कीं तो जतन । कवि रूप म्हैं म्हारी सांस भेळै गूंथ ली म्हारी भासा, एक सामाजिक इकाई रूप कैवूं आ ओळी एक- “आंख मींच कितरा दिन करोला अंधारो ।”
म्हारी सांस रै हरेक आंटै मांय अमूझै है भासा । भाईजी ! मूंढै पाटी कोई मा रै पेट सूं कोनी लायो ।
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ऊंठ
“ओ ऊंठ दांईं सूतो ई रैसी कांई?” जीसा रा बोल उठतां ई उण रै कनां पड्या। स्यात् बो खासी ताळ भळै ई सूतो रैवतो, पण अबै बो आंख्यां मसळतो उठग्यो हो। पण जागता थकां ई बो तुरत पाछो नींद में भळै जाय पूग्यो, जठै बीं नै सपनो याद आयो हो।
बो सपनै में देख्यो हो कै बो सचाणी ई ऊंठ बणग्यो है। पण अबखाई आ ही कै बो ऊंठ बण्यां उपरांत ई सोचै हो कै बो कांईं करै। अठी-उठी हांडता-हांडता ई उण नै कोई मारग कोनी लाध्यो, च्यारूंमेर रिंधरोही ही अर उण रै किणी सवाल रो जबाब बठै कठै लाधतो। बिंयां बो घोर अचरज में ई हो कै बो बैठो बैठायो इंयां ऊंठ किंयां बणग्यो। घर अर मा-जीसा री याद ई उण नै आई पण बो जाणै बेबस हो। उठ’र दो च्यार गडका काढ्यां ई उण नै निरांयत नीं बापरी तो आभै कानीं नाड़ ऊंची कर’र ठाह करण री कोसीस करी कै नाड़ कित्ती लांबी है। ओ भणाई रो असर हो कै बो नाड़ तुरत ही हेठै कर ली। उण नै भाई रा बोल चेतै आया कै ऊंठ री नसड़ी लांबी हुवै तो कांई बा बाढण तांई हुवै है।
जीसा कैवै हा- “चमगूंगा, इंयां चमक्योड़ै ऊंठ दांई अठी-उठी कांईं देखै। उठ, देख कित्तो सूरज माथै आयग्यो।" उण नै चेतै आयो कै रात सूवण सूं पैली ई जीसा उण नै झिडकता थकां कैयो हो कै "लड़धा, ऊंठ जित्तो हुयग्यो। अबै कीं काम-धंधो कर्या कर।"
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चालो माजी कोटगेट
बड़ी गवाड़ बीकानेर माथै एक तांगैवाळो हो जिको हरेक चलतै नै बकारतो- “चालो माजी कोटगेट।” बो काल म्हारै सपनै में आयो। म्हैं बीं नै ओळख लियो कारण कै एक दिन एक रस्तै चालती लुगाई आप री चप्पल काढ़ ली- “रे धबिया, म्हैं कांईं थनै माजी दिखूं?” बो दिठाव ही हो जद पछै म्हैं उण तांगै वाळै नै गौर कर्यो कै बो हरेक चलतै नै बकारतो- “चालो माजी कोटगेट।”
सपनो ई क्या चीज हुवै कांईं कांईं नीं दिखाय देवै, बो म्हनै कैयो- “भाई जी, बीड़ी पाओ।” अर घणै सूतम री बात कै म्हैं ई ठाह नीं क्यूं खुद री चप्पल काढ़ ली अर उण नै कैयो कै- “रे धबिया, म्हैं कांईं थनै बीड़ीबाज दिखूं?”
बीं रै गयां पछै म्हैं सपनै मांय विचारतो रैयो कै म्हैं उण री जरा सी फरमाइस माथै इंयां किंयां कैयग्यो। पण अबै कांईं कारी लागै। सपनै में उण पछै म्हैं आसै-पासै दुकानां नै जोवतो खासी आफळ करी कै कदास कोई दुकान लाध जावै। जे दुकान लाध जावै तो म्हैं बीड़ियां रो बंडळ लेय’र दौड़तो जावूं अर उण नै पकड़ा देवूं। इत्तै मांय बो ई तांगै वाळो जाणै कठीनै सूं निकळ’र आयग्यो अर पागल कोटगेट माथै तांगो लिया ऊभो बोलै हो- “चालो माजी कोटगेट।”
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badhai sa..nuve blog ri..
ReplyDeletejorki gadya kavitawan maandi h sa..
ghana rang aapri kalam ne..
'Gadya Kavitava' banchi sa. Achi Lagi Khas kar uth, inder danus, mude pathi natak ar prem. apne aeri achi GADYA kavitava saru mari gani gani badhai
ReplyDelete'Krant'