सच की ओर इशारा करती डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं
डॉ. नीरज दइया विभिन्न साहित्यिक विधाओं और भाषाओं में रचाव के साथ विशेष रूप से साहित्यिक आलोचना कर्म के लिए विशिष्ट पहचान रखते है। श्री मधु आचार्य की प्रत्येक पुस्तक पर पत्रवाचन करने वाले नीरज जी की किताबों पर पत्रवाचन करना मेरे लिए अलग अनुभव रहा है।
इस पत्रवाचन का मुख्य उद्देश्य चूंकि डॉ. नीरज दइया के दो व्यंग्य संग्रह “टांय टांय फिस्स” तथा ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ पर चर्चा करना है, ना कि व्यंग्य को परिभाषित करना, लेकिन किताबों पर बात शुरू करने से पहले यह रेखांकित तो करना ही होगा कि व्यंग्य का एक प्रकार तो वह होता है जिसमें हास्य का पुट अत्यधिक होता है जिसमें पाठक मनोरंजन के भाव ग्रहण करता है लेकिन दूसरे प्रकार के व्यंग्य लेखन में चेहरे पर मुस्कान अवश्य आ जाती है मगर दूसरे प्रकार का व्यंग्य लेखन ही दरअसल तीर के सदर्श व्यवस्था पर करारी चोट करता है।
डॉ. नीरज दइया के व्यंग्य भी इसी दूसरी श्रेणी में आते है। इसकी वज़ह समझ में आती है चूंकि डॉ. नीरज दइया स्वयं आलोचना के मर्म से बखूबी वाकिफ है अतः जाहिर है कि जब अव्यवस्थाओं से सामना होता है और हर तरफ उदासी और निष्क्रियता देखते है तो इनका आक्रोश क़लम के माध्यम से व्यक्त होता है और इनके लिए अभिव्यक्ति का सार्थक माध्यम बनता है व्यंग्य।
व्यंग्य संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ में शामिल इनकी व्यंग्य रचना ‘फन्ने खां लेखक नहीं’ हमारे ही साहित्यिक संसार के कुछ तुर्रम खां रूपी तथाकथित लेखकों की पोल खोलता है। इस व्यंग्य से गुजरते हुए पाठक जान पाता है कि कैसे साहित्य की दुनिया में भी लेखक अपने भक्तों के साथ साहित्यिक मठ संचालित करते है।
डॉ. नीरज दइया के व्यंग्य यात्रा में सहयात्री के रूप में अर्जित अनुभव से अगर इन्हें गंभीर व्यंग्यकार कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इनका उद्देश्य केवल मात्र पाठक को गुदगुदाना नहीं है वरन् चुटीले अंदाज में विसंगतियों की तह में जाकर अपने भाषायी कौशल से तीखे प्रहार करते हुए पाठकों में वैचारिक उद्धेलन करना है।
‘मीठी आलोचना का मीठा फल’ भी इनकी ऐसी ईमानदार रचना है जो व्यंग्य के माध्यम से साहित्यिक आलोचना कर्म के खोखलेपन से पाठक को परिचित करवाती है। पंच काका का ये कथन अनकहे सच को इशारों-इशारों में बहुत कुछ बयां कर जाता है।
“जब भी कोई किसी कि आलोचना लिखे साथ में रसगुल्ले और भुजिया लेकर ही बैठना चाहिए। कलम चलते-चलते ग़लत दिशा में जाने लगे तो झट से एक रसगुल्ला मुंह में डाला और कलम को संभाला और कभी लगे कि मीठे से जी उकता रहा हो भुजिया फांक के स्वाद को पटरी पर ले आओ।”
इशारों-इशारों में व्यंग्य के प्रहार से घायल करने की इनकी कलमी ताकत पर एक शेअर कलीम आज़िज़ का याद आता है
“दामन पे कोई छींट न, खंजर पे कोई दाग़
तुम कत्ल करो हो के करामात करो हो”
डॉ. नीरज दइया दरअसल करामात ही करते है कि कुव्यवस्था के दोषी इनके व्यंग्य तीरों से घायल भी होते परन्तु ऐसे घायलों के लिए न उगलते बनता, ना निगलते बनता है।
व्यंग्य संग्रह “टांय-टांय फिस्स” की ख़ासियत ये है कि इसकी अधिकतर व्यंग्य रचनाएं साहित्यिक दुनिया से ही सम्बंधित है। इस नज़रिये से डॉ. नीरज जी की सराहना किए जाना तो बनता ही है कि हम अपने घर की थाह लेना भी सीखे। आलोचना, व्यंग्य और चुटीलेपन का कॉकटेल डॉ. नीरज दइया की भाषा में वो पैनापन ला देता है कि पाठक के मानस पटल पर शब्द चित्र उभरने लगते है।
व्यंग्य रचना ‘सेल्फी लेने के नए आइडिये’ जहां लेखक की समसायिकता से वाबस्तगी को जाहिर करता है वहीं ‘जुुगाडू लेखक का सम्मान’ में जुगाडूओं की नगंई को आईना दिखाया गया है वो इस खूबसूरती से कि पाठक सहज ही नज़र घुमाकर अपने आस-पास देखता हुआ बरबस कह उठता है कि ‘‘अच्छा तो यह भी जुगाडू लेखक है’’
दरअसल ये हमारे समाज की एक सच्चाई है कि कुछ जुगाडू तत्त्व साम-दाम-दण्ड-भेद से अपने बड़े होने का भ्रम बनाए रखते है परन्तु जब-जब डॉ. नीरज दइया जैसे लेखक कलम को हथियार बनाकर सच को सच कहने की हिम्मत के साथ आस्माने अदब में नमुदार होते है तो जुगाडूओं के दर्द की वज़ह भी बन जाते है।
शाइरा दीप्ति मिश्र का ये शेअर नीरज जी की शख़्सियत पर सटीक बैठता। मुलाहिजा फरमाऐं:-
“सच को मैंने सच कहा जब कह दिया तो कह दिया
ज़माने की निगाहों में यह हिमाकत है तो है”
शीर्षक रचना ‘टांय टांय फिस्स’ में भी इनके यही तेवर देखने को मिलते है। यहां पंच काका के माध्यम से महान लेखकों की रचना को भी व्यंग्य बाणों की बौछार की जद में लिया गया है।
एक समर्थ व्यंग्यकार कभी भी ग़रीबों और वंचितों पर तंज नहीं करता वरन् वह तमाम तरह की समस्याओं के मूल पर गहरी चोट करता है ऐसा करने पर ही व्यंग्य की प्रासंगिकता बरक़रार रह पाती है।
डॉ. नीरज दइया का व्यंग्यकार बड़े नामधारी फन्ने खानों पे व्यंग्य के नुकीले बाण छोड़ने में गुरेज नहीं करता तभी तो इनका व्यंग्यकार पंच काका की सिफारिश पर भी फन्ने खां की किताब पर लिखने से स्पष्ट मना कर देता है।
डॉ. नीरज दइया के व्यंग्य बाण एक साथ कई शिकार करते है जिसमें एक यह भी कि कहीं खुले में कहीं इशारों में पाठकों को वस्तुस्थिति से अवगत भी करवा देते है। ‘उठा पटक लेखक संघ शीर्षक वाली रचना लेखकों के मुखौटे धीरे से नहीं वरन् नोंच कर उतारती है ताकि पाठक असली चेहरा देख सके।
नोटबंदी के बाद के हालात पर लिखे ताजा तरीन व्यंग्य भी इस किताब की सामयिकता और प्रासंगिकता में अभिवृद्धि करती है साथ ही सर्वथा नवीन विषयों पर लेखक की पकड़ का भी परिचायक है।
साहित्य में तानाशाही चलाने वाले नामाकूलों को ‘साहित्य-माफिया’ कह भी सम्बोधित किया गया है। इनकी व्यंग्य रचना ‘साहित्य माफिया’ साहित्य जगत् की विसंगतियों विडम्बनाओं को बखूबी उजागर करती है।
संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ के दीगर तंजिया कलाम में ‘ये मन बड़ा ही पंगा कर रहा’, बिना विपक्ष का एक पक्ष’, रचना की तमीज, पांच लेखकों के नाम, कहां है उल्लू, ठग जाने ठग की भाषा, कागज के दुश्मन, खाने-पीने की शिकायत, दम सबकी गति एक, विकास का गणित, सबकी अपनी अपनी दुकानदारी आदि ऐसी उल्लेखनीय व्यंग्य रचनाएंे है जो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की व्यंग्य पर की गई बात की याद ताज़ा करती है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब ‘कबीर’ में लिखा था कि “व्यंग्य वह है जहां कहने वाला होठों ही होठों में हंस रहा हो और सुनने वाला या पढ़ने वाला तिलमिला उठा हो और यही तरकीब हमें डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाओं में प्रमुख तौर पर देखने को मिलती है और अब खोलते है सफ़्हात हम इनकी दूसरी किताब “पंच काका के जेबी बच्चे” के। लगभग सभी व्यंग्यकारों को एक ख़ास किरदार होता है जिसके माध्यम से अपनी बात आगे बढ़ाते है। डॉ. नीरज दइया द्वारा सृजित किरदार ‘पंच काका’ के नाम से ही पाठक के दिमाग में एक खाका बन जाता है यानि पाठक के साथ तारम्यता बनाऐ रखने में पंच काका की अपनी अहमियत है और यह अहमियत समाज, देश और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता के दौर में और भी बढ़ जाती है जब लेखक को बिना किसी का नाम लिए अपना रचनात्मक आक्रोश व्यक्त करना होता। इसके लिए व्यंग्य से बेहतर कोई दूसरा माध्यम हो नहीं सकता और पंच काका जैसे किरदार लेखक के काम को बहुत आसान कर देते है।
इस आसानी के दीदार होते है। इस किताब की पहली व्यंग्य रचना ‘व्यंग्य की ए.बी.सी.डी.’ में लोग लेखक से सवाल करे कि व्यंग्य क्या है। इससे पहले ही लेखक ने लोगों की जिज्ञासा का समाधान ‘पंच काका’ के माध्यम से करवा दिया है वही चुटीले अंदाज में। ‘अमुख, प्रमुख और आमुख लेखक’ शीर्षकधारी रचना साहित्य के तलछट के दर्शन कराती हुई लेखक की दयनीयता पाठक के समक्ष रखती है।
‘बजट की गड़बड़-हड़बड़’ में व्यंग्यकार प्रारंभ में आर्थिक आंकड़ों में उलझा दिखता है मगर पंच काका के श्रीमुख से निकले चंद अल्फ़ाज़ अवाम के असली दर्द को बयां कर देते है।
पंच काका के अल्फ़ाज आप भी मुलाहिजा फरमाए, “पहले बाजार जाते थे तो घर से तय करके निकलते थे कि क्या लेना है? हमारी कितनी औकात है, मगर अब तो सारी औकात आनलाईन को मालूम है, पूरा बाजार घर में घुस आया है।”
‘लोक देवता का देवत्व’ व्यंग्य रचना समझने वाले समझ गए जो न समझे वो अनाड़ी है की तर्ज़ पर इशारों में रची ऐसी शानदार रचना है जो ख़ास तौर पर उन पाठकों को ज़्यादा चिंतन पर मजबूर करेगी जो रचना की पृष्ठभूमि से परिचित है। कल्पना के घोड़ों की रफ्तार इस रचना में देखने लायक है। व्यंग्य रचना ‘हां कहने के हजार दुःख’ ख़ालिस व्यंग्य रचना नहीं है वरन् ये रचना व्यंग्य और दर्शन का ऐसा अनूठा संगम है जहां हां और ना कहने के सुख दुःख के मनोविज्ञान को दर्शन के सहारे पाठक तक सम्प्रेषित करने में व्यंग्यकार क़ामयाब रहा है।
रचना ‘एक नंबर बनाम दो नंबर’ में पंच काका की पंक्ति आज के माहौल का ऐसा सच है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, काका कहते है ‘नकल को असल जैसा प्रस्तुत करना ही वर्तमान समय में सबसे बड़ी कला है।’ दरअसल यही तो हो रहा है हर क्षेत्र में बनावटी और दिखावटी लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है ऐसे ही लोगों को डॉ. नीरज दइया आईना दिखाने का काम कर रहे है।
आज के दौर में होने वाले साहित्यिक आयोजनों को भी तंज की जद में लेने से गुरेज नहीं किया गया है। रचना जुल्म-ए-जलसा पढ़ता हुआ वो पाठक जो किसी साहित्यिक आयोजन का हिस्सा रह चुका हो उसे लगता है कि व्यंग्यकार ने उसकी व्यथा ही बयां कर दी है।
बहुत रोचक बात ये है कि व्यंग्यकार ने गंभीरता को भी व्यंग्य का विषय बनाया है जिसमें पंच काका एक बहुत गहरी बात कहते है कि “अगर गलती से कहीं गंभीरता मिल जाए तो मुझे बताना उसकी जांच करनी होगी कि असली गंभीरता है या ओढ़ी हुई छद्म गंभीरता।
डॉ. नीरज दइया अगर “मास्टर जी का चोला” व्यंग्य रचना नहीं लिखते हो शायद इन पर ये इल्जाम आयद हो जाता कि शिक्षा जगत् पर इनके व्यंग्य बाण नहीं चले। सामाजिक सरोकारों से वाबस्तगी रखते व्यंग्य इस किताब की जीनत बने है। जैसे ‘सम्पर्को का है बोलबाला’, पिताजी के जूते, नियम वहां जहां कोई पूछे, बच्चों के संग शिक्षक की सेल्फी, नमक नमकीन हो गया, शुद्ध चीजों का गणित, आदि ऐसे व्यंग्य है जिनमें हल्के-फुल्के चुटीले अंदाज में बहुत प्यार से व्यंग्यकार पाठक का रिश्ता सामाजिक सरोकारों से जोड़ने में कामयाब होता है।
पाठक जब ये लिखा पढ़ता है कि “एक टोपी को दूसरे के सिर पर रखने में जो आनंद है वह कोई हुनरचंद या भुक्तभोगी ही जान समझ सकता है” तो मुस्कुराते हुए चेहरे का भूगोल ही बदल जाता है।
भूगोल बदलते हुए डॉ. नीरज दइया अपने पंच काका के साथ पाठक को कब इतिहास में ले जाते है। पाठक को जब पता चलता है तो वह भी विस्मित हुए नहीं रहता, मगर तुरन्त ही जब ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ आस पास के परिवेश में लाने लगते है तो वह सहज हो जाता है।
पंच काका के ज्ञान से पाठक के चक्षुओं पर पड़े अज्ञानता का पर्दा हटता है तो वह साफ-साफ देख पाता है कि जादूगर की टोपी और नेता की टोपी में तो रात-दिन का अंतर है। जादूगर की टोपी जहां मात्र मनोरंजन तक सीमित, वहीं नेता की टोपी क्या-क्या गुल खिलाती ऐसा अनकहा सच है जिससे सब आश्ना है।
एक बेहतरीन गंभीर व्यंग्यकार पाठक के दृष्टिकोण को रचनात्मक ढंग से बदलने का भी कार्य करता है। पाठक के सामने एक शब्द चित्र होता है जो मस्तिष्क में फिल्म की भांति चलता हुआ उसे वैचारिक आधार प्रदान करता है इस नज़रिऐ से हम कह सकते है कि डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं भी सामाजिक सरोकारों के ताने बाने को ठीक रखने की जद्दोजहद में पाठक का साथ देती है।
इस संग्रह की अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में जे.एल.एफ. में पंच काका, गुट, गुटका और गुटकी, सर्वश्रेष्ठवाद अवसरवाद, अंक ज्योतिष का चक्कर, पाई-पाई का हिसाब तथ संकट में इन्हें सूचित कीजिए ऐसी रचनाएंे है जो पाठक की व्यंग्य के प्रति मुहब्बत बढ़ानेी वाली रचनाएं हैं
डॉ. नीरज दइया की शब्द साधना इन्हें व्यंग्यकार, आलोचक, कवि, कथाकार के रूप में पाठकों के दरम्यान प्रतिष्ठित करती है। इनकी ये प्रतिष्ठा हमेशा बनी रहे तथा निरन्तर सृजन के साथ लेखनी का पैनापन मुसलसल बढ़ता रहे इसके लिए हम सब दुआगो है।
इस पर्चे का इख़्तताम करूं इसमें ……अपनी तवक्कों से भी डॉ. नीरज दइया साहब को रूबरू करवाना अपना अदबी फर्ज समझता हूं। वो ये कि व्यंग्य बाणों से शिक्षा और साहित्य तथा कुछ हद तक अर्थ क्षेत्र को काफी भेद लिया। अब लोक व्यवहार तथा अवाम से जुड़े नवीन और अछूते चौंकाने वाले विषयों पर भी नज़रें इनायत हो। साथ ही इनकी रचनाओं में चुटीलेपन तथा सुव्यवस्थित शब्द संयोजन के कारण भविष्य के लिए मेरा एक सुझाव ये कि हास्य की प्रबलता वाली रचनाओं से भी अपने प्रशंसकों और पाठकों को आनंदित करें।
डॉ. नीरज दइया को बहुत मुबारकबाद तथा सांवर दइया साहब की स्मृति को नमन।
मोबा. 9461911786
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टांय टांय फिस्स (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; अवरण चित्र : के. रवीन्द्र ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ; प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003
पंच काका के जेबी बच्चे (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; अवरण चित्र : के. रवीन्द्र ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ; ISBN : 978-93-82307-68-6 ; प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003
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