मधु आचार्य ‘आशावादी’ का साहित्यिक परिचय
व्यापक और विसाल है कि सभी पक्षों का किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि सत्ताइस
किताबों में आज ये सात किताबें जुड़ कर आपकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या तीन दर्जन
के करीब हो चुकी है। बिना भूमिका विषय-वस्तु और निहित पाठ पर खुद को केंद्रित करते
हुए मैं पुस्तकों में अभिव्यक्त रचनाशीलता और पाठ से जितना और जैसा संभव होगा,
आपको रू-ब-रू करवाने का प्रयास करूंगा।
पांचवा कहानी संग्रह है- “जीवन एक
सारंगी” से पहले चार कहानी संग्रह- ‘सवालों में जिंदगी’, ‘अघोरी’, ‘सुन पगली’ और
‘अनछुआ अहसास और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो चुके हैं। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैं
मधु आचार्य ‘आशावादी’ के लेखन से सतत जुड़ा रहा हूं। इसी जुड़ाव के चलते और अपने
विगत पाठों के प्रभाव की उपस्थिति में मुझे यह पांचवां कहानी-संग्रह पूर्व
संग्रहों की तुलना में एक बदलाव के साथ नई करवट लेता लगता है। यहां चरित्रों के मन
में कुछ अधिक गहरे पैठ कर मार्मिकता और व्यंजनाएं अधिक है। प्रख्यात आलोचक डॉ.
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का मानना है- “जीवन एक सारंगी की बहुत सारी कहानियों का घटनाक्रम बहुत विस्तृत है, लेकिन लेखक ने उसे कम शब्दों में समेटने का प्रयास किया है।
लगता है जैसे हम कहानी के शिल्प में कोई उपन्यास पढ़ रहे हैं।"
मेरा मानना है कि इन कहानियों में
प्रस्तुत चरित्रों एवं घटना-क्रम से कहानीकार का एक खास रिस्ता रहा है। संग्रह की
कहानियों में यर्थाथ अथवा काल्पनिकता से जिन जीवंत विविध चरित्र को प्रस्तुत किया
है, वे सहानुभूति बटोरते हुए संवेदनाओं को जाग्रत करने वाले हैं।
‘जीवित मुस्कान’ कहानी का फोटोग्राफर
सलीम एक ऐसा अविस्मरणीय कथा-नायक है, जिसकी गरीबी और तकलीफ का मुह बोलता चित्रण
कहानी में हुआ है। जीवन के अंतिम पल तक योद्धा की भांति बिना हारे जीवन जीने की
अभिलाषा में संघर्ष है। कहाणी के अंत की पंक्तियां देखें जिसमें कहानीकार की
टिप्पणी है- ‘सलीम का शरीर मर सकता है। पर उसकी यह मुस्कान सदा जीवित रहेगी। हर
अपने के जेहन में यह मुस्कान रहेगी। इसको इसकी मुस्कान जिंदा रखेगी, सालों सालों तक।’ कहा जा सकता है कि मधु आचार्य जीवन के विशाद में भी मुस्कान का संदेश और
प्रेरणा देने वाले रचनाकार हैं।
यह संयोग है कि संग्रह में आगे की तीन
कहानियों में भी मृत्यु और नियति के अद्वितीय चित्र देखने को मिलते हैं। कहानी ‘जीने
का श्राप’ की नायिका मोहिनी अपने संघर्ष को व्यंजित करती है, अंततः शराबी पति और
पथ-भ्रष्ट संतान से तंग आकार यहां जीवन से पलायन है। कहानी में घरेलू नौकरानी पर
आंख रखने वाले सेठ गोविंद लाल जैसे लोलुप का भी सुंदर चित्रण है। ‘सांसों का संघर्ष’
कहानी में इसी के समानांतर सास और पति से परेशान एक घरेलू महिला का प्रतिशोध हत्या
के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक स्त्री स्थितियों से पलायन तो दूसरी आक्रोश से
अपने चरम पर पहुंचती है। पात्रों और चरित्रों का सहज स्वभाविक विकास एवं संवाद
प्रभावशाली है। ‘बूढ़ा प्रतिशोध’ कहानी विचार की प्रस्तुति है कि प्रतिशोध बूढ़ा
नहीं होता। पारिवारिक संघर्षों का छोटे-छोटे संवादों और घटनाक्रमों में ढालना वर्तमान
समय और समाज की सच्चाई से रू-ब-रू करना है।
शीर्षक कहानी ‘जीवन एक सारंगी’ असल
में कथा-नायिका के कविता संग्रह का नाम है। कथा-नायिका रेणु स्त्री जीवन की
त्रासदी को व्यंजित करती है। कहानी का आरंभिक अंश देखें- “जीवन एक सारंगी की
तरह है। इस सारंगी को वही बजा सकता है जिसके पास शब्द हो। अपनी स्व-स्फूर्त
संवेदना हो। इन दोनों के बिना इस सारंगी
को बजा पाना संभव नहीं। असली जीवन भी यही है। पैसा, पद, प्रतिष्ठा की प्राप्ति को जीवन मान लेने वाले बड़ी भूल करते हैं। शब्द और
संवेदना से उपजने वाला संगीत ही जीवन की सारंगी के मधुर और नव स्वर ही जीने को
सार्थक बनाते हैं। दरअसल ऐसा करने वालों को ही जीने का अधिकार है। नहीं तो पशु और
हमारे जीने में कोई अंतर ही नहीं है।” यह
कहानी स्त्री जीवन के एकांत और त्रासदी के साथ उसके भीतर बसी रचनाशीलता को उजागर
करने की कहानी है।
औपन्यासिक विस्तार की इन कहानियों में
विविधता है। ‘चैंज द गेम’ कहानी में अनामिका का कवि रूप और फेस-बुक की दुनिया है,
तो आधुनिकता के इस दौर में नवीन स्थापनाएं भी है। ‘टूटन की त्रासदी’ ऐसी
अविस्मरणीय घटना का कहानी के रूप में प्रस्तुतीकरण है कि हमें अंत तक विजय का मौन
रह कर सब कुछ स्वीकार लेना, अखरता है। कहानी ‘प्रतीक्षा’ में मां-बेटी का अनूठा संवाद
है। जिस में जीवन के अनेक मार्मिक रहस्यों को समझने-समझाने की चर्चा के साथ
परिस्थियों का सच उद्घाटित हुआ है। किसी रिश्ते में हमारे मन का महत्त्वपूर्ण
स्थान होता है, इसी सच को नई परिकल्पना के साथ व्यंजित करती है संग्रह की अंतिम
कहानी ‘रिश्ते की जिद्द’।
एक गद्यकार की तुलना में मधु आचार्य
के कवि पर चर्चा कम हुई है। कवि के रूप में आप पिछले तीन-चार वर्षों से सक्रिय
हैं। इन दो कविता-संग्रहों से पूर्व मधु आचार्य के छह कविता-संग्रह प्रकाशित हो
चुके हैं- ‘चेहरे से परे’, ‘अनंत इच्छाएं’, ‘मत छीनो आकाश’, ‘आकाश के पार’, ‘नेह से
नेह तक’ ‘देह नहीं जिंदगी’। सातवां और आठवां कविता-संग्रह हमारे सामने हैं। ‘रेत
से उस दिन मैंने पूछा’ संग्रह में यहां की माटी की खुशबू है, तो रेत को अनेक
रंग-रूपों में देखने-परखने और अंततः अपने अंतस के संवाद में अनंत को प्रस्तुत कर
देने की अभिलाषा है। मंचस्थ विराजित कवि-आलोचक परिचय दास जी ने इस पुस्तक के फ्लैप
पर लिखा है- “कवि का बीज शब्द है- अनंत। यह वह धुरी है, जिससे कवि व उसकी कविता
को बूझा-समझा जा सकता है। आखिर भाव अनंत है, वाक् अनंत है। मनुष्य-मन की छवियां
अनंत है। संसार का विस्तार अनंत हो, कवि ऐसा ममत्व भरा रचाव चाहता है।”
‘रेत से उस दिन मैंने पूछा’ कविता
संग्रह में तीन खंड है- रेत भी खेलेगी फाग, रेत की अनंत नदी और याद आ गई रेत। एक
समय रहा जब राजस्थान में रेत पर केंद्रित कविताओं का दौर चला था। उस दौर से अलग एक
बार फिर यहां रेत पर केंद्रित कविताओं में जहां रेत का मानवीयकरण है, वहीं रेत से
अंतरंग संवाद और स्वयं के भीतर की तलाश में जीवन के गूढ़ प्रश्नों से मुठभेड़ भी है।
रेत के संदर्भ में एक कविता में कवि मधु आचार्य लिखते हैं- ‘‘एक कौना ही / कर
दो ना मेरे नाम / जीवन को मिल जाएगी / एक मुकमिल मंजिल / अर्थ मिलेगा जीने का /
संवेदना को मिल जाएगा / एक मजबूत सहारा।”
यहां यह संवेदना का मजबूत सहारा केवल
और केवल अपनी जमीन पर पूर्ण विश्वास और समर्पण के कारण संभव है। कवि के शब्दों
में- “कदम कदम पर देती साथ /अपनी रेत की / निराली है बात।” एक अन्य कविता
की पंक्तियां हैं- “अकेले में खुद को पाया बेहाल / अचानक याद आ गई रेत / अपना
उसी से तो है हेत / उससे सच्चा आईना नहीं / चल पड़ा रेत पर / उसने बताई हेत की बात
/ हो गई अपने जीवन की नई शुरुआत।” कहना न होगा कि हर नई शुरुआत के लिए हेत के
साथ अपने भीतर और बाहर संवाद करना होता है। संग्रह ‘रेत से उस दिन मैंने पूछा’ एक
संवाद को फिर से संभव करने का रचनात्मक उपक्रम है। यहां कवि की जिज्ञासाएं और आत्म
संवाद में गहन दृष्टिकोण व्यंजित हुआ है, जिसमें जीवन-दर्शन के साथ-साथ बेहद
सहज-सरल भाषा में आत्मसंवाद से उस अंतस अथवा लोक का कविता के रूप में पुर्नआख्यान
है।
कविता संग्रह ‘श से शायद शब्द’ के
संवंध में जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह में कवि ने शब्द की सत्ता को
विविध स्तरों पर साधने और शब्दों में बांधने का रचाव संजोया है। प्रख्यात कवि और ‘दुनिया
इन दिनों’ के संपादक सुधीर सक्सेना के अनुसार- “यह लोक शब्दों से आलोकित है।
शब्द स्वयं ऊर्जा है। यदि शब्द पास है तो सब कुछ सहज संभव्य है। शब्दों से बेहतर
पथ का पाथेय कोई और नहीं। मनुष्य और शब्दों के साथ की सबसे बड़ी सार्थकता यही है कि
मनुष्य निःशब्द शब्दों को जहां ध्वनि, अर्थ और सौंदर्य मिलता है, वहीं मनुष्य को
परिचय, पहचान और सृजन का अनूठा माध्यम।”
‘श से शायद शब्द’ संग्रह की कविताएं
तीन खंडों- अकेलापन ही आठों प्रहर, इसीलिए तो सब कहते तथा खामोश हो गए में है।
इनमें शब्द की सत्ता और सामर्थ्य पर कवि का विश्वास है वहीं रिश्तों को भी शब्दों
से बुनने और बुनते जाने का आह्वान भी है- “सब है संभव / शब्द / कुछ भी नहीं
रहने देता / हमारे लिए असंभव।” एक अन्य कविता में शब्द के अनंत विस्तार की
परिकल्पना इन पंक्तियों में देखें- “एक शब्द / रचता है एक अपनी दुनिया / जिसमें
बसते / हम सब।” कवि का मानना है कि “सब दिखता है शब्द / खुद रहकर / निःशब्द”
जाहिर है शब्द की इस निशब्दता को देखने का एक वितान इन कविताओं में हमें मिलता है।
शब्द के अनेका रूप और मायावी क्षमताओं
पर भी कवि ने दृष्टिपात किया है- “शब्द ही नहीं / उसकी धवनि भी / सुनाती है भाव
/ उसी से / शब्द बनता फूल / या लगता बनकर पत्थर।" यह कशमाकश है कि “एक
शब्द / जोड़ता है, / एक ही शब्द / तोड़ता भी है।” ऐसे में श से शायद शब्द... की इन
कविताओं का पाठ बेहद जरूरी लगता है। इन कविताओं में आज के भीड़-तंत्र के सामने शब्द
की आदि और अनादि शक्तियों की व्यंजना मिलती है।
कवि रेत और शब्द के संदर्भों में गहरे
उतर कर जैसे डूब-डूब जाना चाहता है। कई स्थलों पर इन कविताओं में इनकी सहजता और
सरलता के चलते पाठ में रूप की समानता और समानांतर स्थितियों की प्रतीतियों को देखा
जा सकता है। इस संबंध में मेरा निवेदन है कि आपने कभी अपनी धरा से आकाश को देखा
है? यदि ‘हां’ तो आप कल और आज के देखे गए अपने आकाश को शब्दों में अभिव्यक्त करने
का प्रयास करेंगे तो पाएंगे यह बड़ा कठिन कार्य है। निश्चय ही कल का और आज का अथवा
किन्हीं दो दिनों का आकाश बहती नदी के पानी की भांति सदा एक-सा नहीं होता है। इस
भ्रमणशील धरा में हमारे सामने आकाश के अनेक रंग आते-जाते हैं। ठीक ऐसे ही मधु
आचार्य की इन कविताओं का अपना एक आकाश है, और निश्चय ही यह आकाश रेत और शब्द से
जुड़ी इन कविताओं के माध्यम से साफ और सघन से सघन होते-होते कवि और कविता की असीम
क्षमताओं को उजागर करता है।
मधु आचार्य ‘आशावादी’ का प्रथम
व्यंग्य संग्रह- ‘गई बुलेट प्रूफ में’ अनेक संभवनाओं को लिए हुए है। प्रमुख बात यह
कि आज जब साहित्य में व्यंग्य चादर के आकार को विस्मृत कर रूमाल जैसे छोटे आकार
में स्थापित हो चुका है, ऐसे में इस कृति में सहज संवादों और कथ्य-विस्तार की
संभावनाओं को देख कर हर्ष होता है। कहा जा सकता है कि मधु आचार्य ने व्यंग्य में इस
विधा की स्मृति को सिद्ध करते हुए कथात्मकता से लबरेज नई भूमि के लिए प्रस्थान
बिंदु पा लिया है। संग्रह के निबंधों में गूढ़ चिंतन और भाषिक उलझाव या खेल से दूर जीवन
से जुड़े कुछ सरस कथा-प्रसंगों के माध्यम से हास्य और व्यंग्य के छींटे मुख्य पात्र
नवाब साहब के माध्यम से शब्दों में पिरोये गए हैं।
‘गई बुलेट प्रूफ में’ संग्रह का पहला व्यंग्य
है। जिसकी आरंभिक पंक्तियां हैं- राजस्थानी में एक कहावत है, ‘म्हनै घड़गी जिकी
बाड़ मांय बड़गी’। सीधे शब्दों में इस कहावत की व्याख्या करें तो कुछ लोग यह मानते
हैं कि उनके जैसा गुणी कोई दूसरा है नहीं। क्यों कि उसे जन्म देकर जनदायी वापस चली
गई और इसी कारण कोई दूसरा उस जैसा जन्म ले ही नहीं सका। बहुत गूढ़ अर्थ की कहावत
है। मधु आचार्य ने इस रचना में जहां राजस्थानी कहावत को नए अर्थों में रूपांतरित
किया है, वहीं व्यंग्य का कैनवास भी विस्तृत करने को सपना इस पुस्तक में है। कवि
एवं व्यंग्यकार डॉ. लालित्य ललित ने मधु आचार्य ‘आशावादी’ के व्यंग्य में राजनीति-फ्लेवर
की नई परिकल्पना का उल्लेख करते हुए लिखा है- “मधु के पास विषयों की कमी नहीं,
अपितु यह अपने व्यंग्य से महीन मार करने में सक्षम है, इनके व्यंग्य में सीधे
सत्ता को चोट करने का साहस भी और उसे दुलारने का अद्भुत कौशल मंत्र भी है।”
व्यंग्य का उद्देश्य सुधार होता है।
मधु आचार्य ‘आशावादी’ अपने आस-पास की दुनिया से अनेक संदर्भों में चरित्र नायक
नवाब साहब के माध्यम से गहरी गुत्थियां सुलझाते हुए कुछ ऐसे अनिवार्य और जरूरी
संकेत करते हैं जिनका सरोकार हम सभी से है। बीकानेर के संदर्भों से जुड़ी स्थितियां
भी कमोबेश अन्य शहरों और नगरों की होगीं। साथ ही यहां की लोगों का आचार-विचार और
व्यवहार जहां स्थानीयता की अभिव्यंजना है, वहीं गहरे अर्थों में देश के उन सूक्ष्म
स्थलों की पहचान कर व्यंग्य के माध्यम से उपचार की दिशा में अग्रसर होना है। ‘सलाहगीरों
का सलीका’ व्यंग्य में सलीके की मीठी मनुहार है तो ‘संकट है, महासंकट’ में विचारों
की रंग-बिरंगी दुनिया। ‘सम्मान की दुकान’ जैसे व्यंग्य में साहित्यिक सम्मानों का
सच उजागर हुआ है। ‘मफ्तखोरी की सजा’ हो या फिर ‘कबाड़ने की कला’ व्यंग्यकार जिस सत्य
की खोज में हमें लेकर निकलता है वह एक यादगार के रूप में हमारी स्मृति का हिस्सा
बन जाती है।
(लोकार्पण के अवसर पर पढ़ा गया पत्र
वाचन 16-07-2016)
धरणीधर रंगमंच पर रोटरी क्लब बीकानेर मिडटाउन द्वारा
साहित्यकार सम्मान कार्यक्रम में मेरा भी सम्मान हुआ।
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