आनन्दम-मधुरम में पत्र वाचन कविता संग्रह "आकाश के पार" पर
कविता-संग्रह “आकाश के पार” के विषय में
नीरज दइया
आज के कार्यक्रम के अध्यक्ष आदरणीय श्री रामकिशनजी आचार्य, मुख्य
अतिथि अग्रज कवि-संपादक श्री सुधीरजी सक्सेना और आप सभी गुणीजन, सुधी श्रोता। लोकार्पित
कविता-संग्रह के विषय में कुछ कहने से पूर्व मैं आयोजन संस्था “नट
साहित्य-संस्कृति संस्थान” और कार्यक्रम से जुड़े सभी मित्रों का आभार प्रगट करता
हूं कि मुझे यह अवसर प्रदान किया। मंच पर विराजित बड़े भाई कवि-नाटककार श्री आनंद
वी. आचार्य और पत्रकार-संपादक, रंगकर्मी, कवि-कहानीकार एवं उपन्यासकार भाई श्री
मधु आचार्य ‘आशावादी’ को इस प्रकाशन पर बधाई और शुभकामनाएं।
किसी लोकार्पण-समारोह के अवसर पर कृति और कृतिकार के विषय में क्या
कुछ कहा जाना अपेक्षित है... मैं कुछ कहना चाहता हूं और आप कुछ सुनना चाहते
हैं.... हम अपनी-अपनी भूमिका के लिए तत्पर हैं। मेरा इन भूमिकाओं के बारे में सोचना
दरसल मेरे भीतर एक विराम और अंतराल को जन्म देता है। यदि ऐसा है तो फिर सोचने की
भूमिका क्या है? लोकार्पित कविता संग्रह “आकाश के पार” के विषय में मेरे द्वारा
परिकल्पित कुछ विचार जो अब तक मूर्त होने को आतुर थे, कहीं खो जाते हैं। कुछ बाकी
बचता है उसे मैं मेरे संदेह और शंकाएं कह सकता हूं। असल में आज के दौर में साहित्य
समाज से दूर होता जा रहा है और ऐसे आयोजन ऐसे लेखक अपने प्रयासों से दूरियां पाटने
में लगे हैं। आज के समाज को जानना है कि उसकी सार्थकता शब्दों की दुनिया में
समाहित है। अगर शब्दों की दुनिया को बचाया रखा जाएगा तो आदमी के आदमी बने रहने की
उम्मीद बनी रहेगी, वर्ना आदमी मशीन के रूप में रूपांतरित हो जाएगा। मुझे खुशी है
कि मैं और आप यानी हम सब आदमी को आदमी बनाए रखने की इस मुहीम में साथ-साथ
हैं।
हम जानते हैं कि मधुजी मूलतः एक रंगकर्मी रहे हैं, जो नाटक और
निर्देशन के लिए जाने-पहचाने जाते रहे हैं। इसी यात्रा के समानान्तर पत्रकारिका के
क्षेत्र में आपकी लंबी यात्रा को बेशक हमें जोड़ना होगा। समकालीन हिंदी और
राजस्थानी साहित्य में विविध विधाओं के लेखक के रूप में सक्रिय मधु आचार्य
“आशावादी” का आज चौथा कविता संग्रह “आकाश के पार” लोकार्पित हुआ है। यहां आपके
पूर्ववर्ती कविता संकलनों का उल्लेख आवश्यक है- वर्ष 2013 में पहला कविता संग्रह “चेहरे से परे” और वर्ष 2014 में अगले दो कविता संग्रह- “अनंत इच्छाएं” तथा
“मत छीनो आकाश” प्रकाशित हुए, और संभव है कि इस वर्ष के अंत तक मधु भाई साहब का
पांचवा कविता-संग्रह हमारे हाथों में हो। इसे भविष्यवाणी की तरह नहीं लिया जाए,
क्यों कि कुछ भी संभव है। और मधु आचार्य “आशावादी” को शब्द-कोश में असंभव जैसा कोई
शब्द नहीं है। नहीं है का कोई अन्यथा अर्थ नहीं लिया जाए, शब्द तो सभी शब्द कोश
में होते हैं, कुछ शब्द लोक में रहते है....
किंतु भाषा के प्रवेश द्वार पर इतनी सावधानी सजगता है कि उसे अब तक इतना
दूर धकेला जा चुका है कि वह पास आएगा तो अपनी पहचान का संकट लिए होगा।
साहित्य के अंतर्गत विविध विधाओं में एक साथ लिखना सरल कार्य नहीं है।
सभी विधाओं और उपविधाओं के अपने अपने अनुशासन हैं। मधुजी का नाटक, उपन्यास, कहानी
और कविता के अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों और भंगिमाओं में लिखना उनके अंतस की उपज
है। नाटक और पत्रकारिका के क्षेत्र के विशद अनुभव उनके लेखन को समृद्ध करते हैं।
असल में विधाओं और विषयों का विषयांतर उनके रचनाकार होने का विस्तारित रूप है। वे
अपनी छवि और आभा मंडल को साहित्य में निरंतर विस्तारित करते रहे हैं। यह पहली बार
आप और हम देख रहे हैं कि विगत दो वर्षों में मधु आचार्य ‘आशावादी’ ने साहित्य की
विविध विधाओं में विपुल मात्रा में लेखन-प्रकाशन किया है। यह आंकड़ा केवल बीकानेर
के लिए नया नहीं है, वरन पूरे राजस्थान और भारत में देखा जाएगा तो ऐसा उदाहरण बहुत
कम देखने को मिलेगा।
कुछ रचनाकारों के अपने आभामंडल निर्मित हो जाते हैं कि पाठक उनसे
बाहर, उनके कुछ अलग होने के बारे में सोचना छोड़ देते हैं। यह तो सर्वविदित है कि
मधु आचार्य ‘आशावादी’ नाटकार-पत्रकार हैं। क्या रंगकर्मी और पत्रकार होने से अधिक
महत्त्वपूर्ण उनका लेखक होना है? कवि होना अधिक महत्त्वपूर्ण है तो क्यों? ऐसे
सवाल यदि हम खुद से करते हैं तो निश्चित जानिए कि हम बचे हुए हैं। हरेक की अपनी
मौलिकता और निजता में ऐसे संदेह और शंकाएं निरंतर जन्म लेते रहे ऐसा उद्देश्य
साहित्य का रहता आया है। साहित्य के समानांतर आलोचक के रूप में हमें सोचना चाहिए
कि किसी को कवि मानने की क्या कुछ शर्ते होती हैं? कविता के जन्म को कवि किसी
रचना-प्रविधि से कैसे संभव करते हैं? ऐसे अनेक सवाल हैं, जो रचना-आलोचना के पक्षों
से संबद्ध हैं।
शास्त्र में कवियों की कसौटी तो गद्य लेखन को माना गया है, और मधु
आचार्य ‘आशावादी’ जी के गद्यकार होने के विषय सर्वत्र सराहना हुई है। मेरा तो यहां
तक मानना है कि मुझे उनका गद्यकार होना अधिक आकर्षित करता रहा है। ’गवाड़’ अथवा
’इन्सानों की मंडी’ ऐसे उपन्यास है जिनको मैं समकालीन साहित्य में अलग से रेखांकित
किए जाने की हिमायत करता रहा हूं। ऐसे में शास्त्र सम्मत निष्कर्ष तो मधुजी के
पक्ष में जाता है। अस्तु हम कह सकते हैं कि मधुजी कवि हैं।
कुछ शब्दों को कविता के रूप में रचने से पहले कवि को क्या कुछ करना
पड़ता है? या इस तथ्य को मैं ऐसे जानना चाहूं कि कविता कविता के मार्ग का चुनाव
कैसे करता है। क्या कविता लिखना किसी रोजमर्रा के कार्य जैसा कोई कार्य कि आओ
कविता लिखते हैं। यह बहुत गंभीर कार्य है। मेरा संकेत हमारे कवियों की जिम्मेदारी
और जबाबदेही से जुड़ा है। ऐसी जिम्मेदारी और जबाबदेही की बाते मैं बहुत संकोच और
विन्रमता के साथ रखना चाहूंगा। असल में मेरा आगे कुछ कहना, कुछ जानना है। इस कहने
और जानने में कुछ मौलिक और कुछ सर्वविदित जानकारियां होती है। मेरे अपने संदेह और
शंकाएं आपसे साझा करना चाहता हूं। मधु आचार्य ‘आशावादी’ के पास ऐसा कुछ कहने को है
जो किसी समाचार, नाटक, कहानी, उपन्यास या निबंध आदि आदि विधाओं में कहना संभव
नहीं। कुछ है जो केवल और केवल उनको कविता के बहुत करीब ला कर खड़ा कर देता है। रचना
की संभावना कुछ संभव और कुछ असंभव के बीच से अपना रास्ता बनाती है।
कुछ संभव होना या नहीं होना मूलतः हमारे सोचने पर निर्मित है। मैं स्मृतियों
के मार्ग पर पीछे की और लौटता हूं तो मुझे सर्वप्रथम मधु आचार्य ‘आशावादी’ एक
नाटककार के रूप में दिखाई देते हैं, फिर पत्रकार के रूप में और बाद में संपादक के
रूप में। जैसा आप जानते हैं कि सर्वाधिक प्रभावित मैं मधुजी के उपन्यासकार रूप से
रहा हूं... और कहानियां और आलेख भी लिखें हैं। पिछली किताबों के
लोकार्पण-कार्यक्रमों में मैं मधुजी के कवि रूप पर बहुत कम कह सका। अब भी यही हाल
है। इसका सीधा-सीधा कारण बिना हासलपाई कहा जाए तो मुझे आपका गद्यकार रूप तुलनात्मक
रूप में अधिक लुभाता है, जो मुझे ठीक-ठीक कविता के क्षेत्र में प्रविष्ट ही नहीं
होने देता। अब जब मैंने मधुजी के चारों कविताओं के संग्रहों को समय दिया है तब
मुझे लगता है कि उनका अपना राग है, अपनेपन का रंग है और इन सब में उल्लेखनीय उनका
अपना रचाव है। कविताएं कवि के निज को उद्धाटित करनी अलग-अलग अनुभूतियों और
विचारों-संवादों से संभव होती ऐसी आधार भूमि है जिस पर चलना कवि और कवि के मन को
बेहतर जानना है।
हमें सामने जो चीजें दिखाई देती हैं, वे असल में उसी रूप में नहीं
होती जैसी वे दिखायी देती है... असल में हमारा यह देखना ही उन चीजों को अपना रूप
और अपनत्व देता है। जीवन के असंख्य रंग हैं और यह जीवन सच्चे और झूठे रंगों से भरा
है। इन रंगों के भी अपने अलग अलग रूप-रंग है। जीवन में सुख और दुख दो रंग नहीं वरन
हमारे अंतस में निर्मित दो आकाश है। कवि इसी आकाश की बात करता है। हमें आज इतना
अवकाश ही नहीं कि हम आकाश के पार जाने की कोई विचारधारा बना सके। पार जाना असल में
किसी परंपरा और परिपाटी के समक्ष नव निर्माण का अस्थित्व होना है। वह क्या है जो
जीवन में होना चाहिए। वह क्या है जो होने पर भी हमें दिखायी नहीं देता, जो देखने
में कहीं छूट जाता है और कोई मधु आचार्य ‘आशावादी’ जैसा कोई कवि उसे देखता-दिखाता
है।
“आकाश से पार” की कविताएं अपने पाठ पर किसी कवि के देखने में दरसल कुछ
देखना संभव कराती हैं। समकालीन समय और समाज के अनेकानेक संकटों में सबसे बड़ा संकट
है कि हम अपनी अपनी सीमाओं में आबद्ध है, ऐसे में कुछ संभावनाएं लिए सपने कविताएं
इजाद करती हैं। झूठी होती जा रही दुनिया में हमारे समय के सच को बचाने और बनाने का
काम इन कविताओं में दिखाई देता है। इन कविताओं के माध्यम से असल में कवि के सच को
जानना समकालीन समय और समाज के सच को जानना है। कवि मन के करीब पहुंच कर ही किसी
अनुभूति को जाना जा सकता है अथवा किसी दृश्य को कवि की आंख से देखा जाना संभव हो पाता
है। यह जरा मुश्किल होता है किंतु मधुजी के यहां यह संभव है कि कवि के अपने सच हमारे
सच होते प्रतीत होते हैं और इन अनुभूतियों में कवि के रूप में हम स्वयं को
प्रतिस्थापित करने लगते हैं।
“आकाश के पार” संग्रह में
कविताएं भिन्न भिन्न मनः स्थितियों को प्रकट करती अलग-अलग खंडों में विभक्त कविताओं
का ऐसा संचयन है, जो अपनी सहजता-सरलता एवं भाव-प्रांजलता के कारण उल्लेखनीय कहा
जाएगा। बिना किसी आडंबर और अतिरेक के यहां अंतस के सहज उद्गारों से सजी ये कविताएं
अपने पाठकों को सीधा संबोधित कर संप्रेषित करती हैं। मधुजी की कविताओं के विविध
स्वर यहां देखते हैं, वहीं इन अनुभूतियों में आलोकित स्मृतियों के गवाक्ष भी अपनी
कहानियां कहते नजर आते हैं। जिस प्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी का “बादल”
प्रिय बिंब था, उसी भांति मधु आचार्य का प्रिय बिंब “आकाश” है। एक आकाश जो आंखों में
समाया है, एक आकाश जो मन के भीतर आछादित है। इन दो आकाशों के मध्य कवि संवेदना के
सेतु निर्मित कर जीवन के परम सत्य मृत्यु के समक्ष कभी प्रश्नाकुल मुद्रा में
पहुंचता है तो कभी जीवन के आनंद-उत्साह में बंद मुट्ठियां खोल कर सब कुछ हमारे
हवाले कर देता है। जीवन में राग और रंग को संभव करती ये कविताएं कभी रिश्तों का
गणित समझाती है, तो कभी जैसे फिर-फिर किसी गर्भ से जन्म को आतुर फिर-फिर जन्म को
प्राप्त करती बार-बार जीवन में अपने सत्य के तलाश का सिलसिला कायम रखती हैं।
उदाहरण स्वरूप
संग्रह की एक कविता “नियति” को देखें-
जीवन
भी है अजीब / हर दिन दिखाता / नए-नए रंग / हम भी तो बदल लेते हैं / इनसे जीवन जीने
का ढंग। / यह आकाश भी तो है / हमारे जीवन जैसा / कभी ऐसा / तो कभी वैसा। / हमारे
जीवन जैसा / विचलित कर देता / धरा को / और हमें भी / बदलना शायद / सबकी नियती है।
(पृष्ठ 58)
कवि द्वारा यहां नए का स्वीकार जीवनानुभव है। जीवन के नए से नए रंगों
को हमें कवि मधु आचार्य की कलम द्वारा सुलभ होते रहेंगे, इसी आकांक्षा के साथ अंत
में एक बार फिर मंच पर विराजित बड़े भाई कवि-नाटककार श्री आनंद वी. आचार्य और
पत्रकार-संपादक, रंगकर्मी, कवि-कहानीकार एवं उपन्यासकार भाई श्री मधु आचार्य
‘आशावादी’ को इस प्रकाशन पर बधाई और शुभकामनाएं। आपने मुझे धैर्य-पूर्वक सुना इसके
लिए आप सभी का आभार।
बड़े भाई कवि-नाटककार श्री आनंद वी. आचार्य और पत्रकार-संपादक, रंगकर्मी,
कवि-कहानीकार एवं उपन्यासकार भाई श्री मधु आचार्य ‘आशावादी’ को प्रकाशन पर
बधाई और शुभकामनाएं।
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