सुप्रसिद्ध कवि एवं संपादक सुधीर सक्सेना अपनी रचनात्मकता के साथ-साथ यायावरी के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने एक यायावर के रूप में दुनिया को जोड़ने का कार्य किया है। डॉ. नीरज दइया ने अनुवाद के माध्यम से उनकी कविताई को राजस्थानी भाषा से जोड़ दिया है। सुधीर सक्सेना की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह ’अजेस ई रातो है अगूण’ के बाद अब उनके कविता संग्रह ’ईश्वर: हां, नीं...तो’ का राजस्थानी अनुवाद के रूप में आना बहुत सुखद है। यह राजस्थानी मिट्टी की तासीर ही है कि अब सुधीर सक्सेना किसी दूसरी भाषा के कवि नहीं लगते बल्कि ठेठ राजस्थानी कवि के रूप अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। एक कवि का भाषायी दायरों को लांघकर इस तरह पाठक-मन में जगह बनाना अनुवाद व कविताई की साख बढ़ाने वाला है।
ईश्वर को लेकर दुनिया भर की भाषाओं में इतना कुछ लिखे जाने के बाद भी वह अज्ञात-अगोचर है। यह दुनिया किसने बनाई है तथा इसका संचालन करने वाला कौन है? वह कौन है जो अनगिनत जीवों में जीवन-ऊर्जा भरता है? वह कौन है जो फूल-पत्तियों में विभिन्न रंगों के रूप में खिलता है। जन्म से पहले व मृत्यु के बाद के जीवन व सृष्टि के गूढ़ रहस्यों को जानने की आदिम आकांक्षा अनादिकाल से मानव-मन को मथती रही है। इसी जिज्ञासा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है आलोच्य कविता संग्रह ’ईस्वरः हां, नीं...तो’। इन कविताओं में कवि ने परम सत्ता के साथ सीधा संवाद स्थापित किया है। कभी वह ईश्वर से सवाल करता है तो कभी ईष्वरीय सत्ता की चिन्ताओं में सहभागी बनता है। कहीं ईश्वर के तौर-तरीकों से नाराज हो जाता है तो कहीं उससे प्रार्थना करने लगता है। खास बात यह है कि सुधीर सक्सेना का ईश्वर किसी पंथ विशेष या कर्मकाण्ड के बंधनों में बंधा हुआ नहीं है। वह इन सबसे ऊपर व सर्वव्यापक है। ईश्वर के दुखों का हिसाब संभवत- हिन्दी की समकालीन कविता में पहली बार ही लिखा गया होगा- “माई लाई मांय थे ई नापाम सूं दागीज्या/हिरोशिमा में हिवाकुशा दांई/रेडियोधर्मिता सूं घायल/ईस्वर/आजै तांई थांरै दुखां रो छेड़ो कोनी / कै हिंसाळू अर अराजक बगत है ओ“। यहाँ कभी कवि ईश्वर के अथाह दुखों के निवारण की अरदास करता है तो कभी उसके अकेलेपन को तोड़ने की चिंता करता है। इससे भी आगे बढ कर वह ईश्वर के लिए एक आचार-संहिता लिखी जाने को जरुरी समझता है। कहना न होगा, इन कविताओं का आत्मीयतापूर्ण पाठ पाठक को एक ऐसे भाव-लोक में ले जाता है जहाँ ईश्वर अपनी अलौकिकता से बाहर निकलकर उसके बराबर खड़ा महसूस होता है। कविताओं से गुजरने के बाद भी उनकी अनुगूँज पाठक के मन में बनी रहती है जो किसी भी काव्य-रचाव की सफलता का एक निकष कहा जा सकता है। निष्चय ही यह गूँज ही कवि के बहाने हर संवेदनशील व्यक्ति के मन में उठने वाले ऐसे सवालों का उत्तर खोजने का मार्ग प्रशस्त करती है।
एक अनुवादक के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह मूल रचना की आत्मा को ठेस पहुँचाए बिना इतनी खूबसूरती के साथ भाषांतर करें कि पाठक को पता ही न चलें। इन कविताओं को पढ़ते समय लगता कि हम राजस्थानी में मौलिक रचाव को बांच रहे हैं। निश्चित रूप से इसके लिए अनुवादक के साथ डॉ.नीरज दइया का समर्थ कवि-मन श्रेय का हकदार है। प्रसिद्ध कथाकार बुलाकी शर्मा की यह बात सोलह आना खरी है कि जो कवि और अनुवादक है वह उन रचनाओं को अपनी भाषा के पाठकों तक पहुँचाना जरूरी समझता है जो उस भाषा के कथ्य, बुणगट व चिंतन आदि के स्वरूप के बारे में नए तरीके से सोचने के लिए विवष करें। मायड़ भाषा के चर्चित कथाकार-पत्रकार मनोज कुमार स्वामी को समर्पित इस कविता संग्रह से राजस्थानी अनुवाद का सफरनामा दो फलांग आगे बढ़ा है इसमें संदेह नहीं है। प्रफुल्ल पळसुलेदेसाई के मनमोहक आवरण चित्र व गौरीशंकर आचार्य की लाजवाब साज सज्जा के साथ बेहतरीन छपाई-बंधाई वाली इस कृति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए सूर्य प्रकाशन मंदिर साधुवाद का अधिकारी है।
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'ईस्वर: हां, नीं..तो' (सुधीर सक्सेना की कविताओं का राजस्थानी अनुवाद) अनुवादक: नीरज दइया, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, प्रथम संस्करण 2021, पृष्ठ 80, मूल्य 200₹
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डॉ मदन गोपाल लढ़ा
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