समकालीन राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य
पुस्तक परिचय डॉ. सत्यनारायण सोनी
'राजस्थानी साहित्य का समकाल' समकालीन राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित हिंदी में आलोचनात्मक पुस्तक है। डॉ. नीरज दइया कृत इस पुस्तक में गत वर्षों में आधुनिक राजस्थानी साहित्य और भाषा मान्यता के संबंध में बारह आलेखों को संकलित किया गया है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के सवाल से लेखक नीरज दइया ने अपनी बात आरंभ करते हुए समकालीन राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं के विकास को व्यापकता से रेखांकित करते हुए एक विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत किया है।
पुस्तक के तीन आरंभिक आलेखों में राजस्थानी भाषा के मान्यता मुद्दे को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक ने राजस्थानी के चाहने वालों के समक्ष ठोस आधार भूमि प्रस्तुत की है। इन आलेखों में बहुत विनम्र भाषा में सटीक तर्क के साथ भाषा विज्ञान को आधार बनाते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां और अपना पक्ष लेखक ने रखा है। राजस्थानी एक संपूर्ण और समृद्ध भाषा है, इसके साक्ष्य को अनेक बिंदुओं में इस कृति में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक नीरज दइया की यह विशेषता है कि वे अपने आलोचनात्मक आलेखों में इस बात का विशेष आग्रह रखते हैं कि उनके उदाहरण और पक्ष-विपक्ष की तमाम बातें हमारे आस-पास के और अपनी ही भाषा के साहित्य से प्रस्तुत की जाए। अन्य विद्वान समालोचकों की भांति अनेक प्रख्यात देशी-विदेशी लेखकों के कथनों की भरमार नहीं प्रस्तुत कर लेखक ने केवल और केवल अपने मुद्दे की बात अपने अंदाज में की है जो प्रभावित करता है और संप्रेषित भी अधिक होता है। लेखक ने अपने समकाल और समकालीन साहित्य को सम्यक दृष्टि से देखने-समझने और परखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस कृति में मुख्य रूप से साहित्य की केंद्रीय विधाओं को विमर्श का विषय बनाया गया है।
आलोचक डॉ. नीरज दइया की इस कृति का महत्त्व दो दृष्टियों से किया जा सकता है, जिसमें पहला साहित्य के विकास और प्रवाह के महत्त्वपूर्ण आयामों को सहेजते हुए सम्यक रूप प्रस्तुत करना, वहीं दूसरा और अधिक महत्त्वपूर्ण विधाओं के तकनीकी पक्षों को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए रचनात्मक आरोह-अवरोह को रेखांकित करना। उपन्यास और कहानी में अंतर को दर्शाने वाले आलेख के अंतर्गत दोनों विधाओं के तात्विक अंतर को जहां सूक्ष्मता से स्पष्ट किया गया है, वहीं इस आलेख में न केवल राजस्थानी साहित्य वरन इसकी परिधि में संपूर्ण साहित्य के समकाल को देखने-परखने के आयाम भी उद्घाटित होते हैं। किसी भी रचना में भाषा का अवदान महत्त्वपूर्ण होता है, भाषा की सहूलियत और सहूलियत की भाषा आलेख में उपन्यासों पर अपनी बात को केंद्रित करते हुए लेखक ने राजस्थानी उपन्यास विधा में भाषिक-तत्व को गहनता से विवेचित किया है। राजस्थानी कहानी के संबंध में इस कृति में तीन आलेख संकलित किए गए हैं, जिनमें राजस्थानी कहानी के कदम दर कदम विकास के साथ उसमें होने वाले शिल्प और संवेदना के स्तर पर बदलावों और उनके अनेक पक्षों का सुंदर विवेचन भी किया गया है।
आधुनिक समकालीन कविता के साथ ही युवा कविता स्वर का भी सम्यक विश्लेषण दो आलेखों में प्रस्तुत किया गया है। इन आलेखों में अपने समकालीन लेखकों पर लिखते हुए लेखक ने जहां निर्ममता दिखाई है, वहीं रचनात्मक सबल पक्षों के प्रस्तुतीकरण में अपने साथी और पूर्ववर्ती पीढ़ी के रचनाकारों की भरपूर सराहना भी पुस्तक में देख सकते हैं। अंतिम आलेख के रूप में उस अभिभाषण को संग्रह में स्थान दिया गया है जो आलोचक डॉ. नीरज दइया ने साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद नई दिल्ली में दिया था। इसमें उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा और आलोचनात्मक दृष्टि के बारे में उदाहरणों के साथ अपनी आत्मीयता और भाषा के प्रति लगाव को अभिव्यंजित किया है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के इस मत से सहमत हुआ जा सकता है- 'भारतीय भाषाओं के बीच राजस्थानी साहित्य की समालोचना की यह पहल नई होने के साथ सार्थक भी है।'
यह पुस्तक न केवल राजस्थानी में रुचि रखने वाले पाठकों-शोधार्थियों के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है, वरन भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए भी पर्याप्त महत्त्व रखती है। लेखन नीरज दइया का मानना है कि भारतीय साहित्य का पूरा परिदृश्य भारत की सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य से निर्मित होता है और इस क्रम में यदि समकालीन राजस्थानी साहित्य को किसी एक पुस्तक के जरिए जानना हो तो यह पुस्तक जरूरी है।
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राजस्थानी साहित्य का समकाल (आलोचना) डॉ. नीरज दइया
संस्करण : 2020; मूल्य : 200/-; पृष्ठ : 128
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड, बीकानेर।
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डॉ. सत्यनारायण सोनी, प्रधानाचार्य, राउमावि, टोपरियां,
तहसील : नोहर, जिला : हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335523
मो. 7014967603
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