Wednesday, April 13, 2016

डॉ. आईदान सिंह भाटी से डॉ. नीरज दइया की बातचीत

मूल और अनुवाद में भेद नहीं करना अनैतिक : आईजी
 (बीकानेर / राजस्थानी के ख्यातनाम लेखक डॉ. आईदान सिंह भाटी ‘आईजी’ एक कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए बीकानेर आए। इस मौके पर ‘भास्कर’ के पाठकों के लिए कवि-कथाकार-आलोचक डॉ. नीरज दइया ने उनसे विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के अंश)

आप वर्षों हिंदी के प्राध्यापक रहे फिर भी राजस्थानी में ही लिखते रहें हैं, ऐसा क्यों?
आईजी- इसका पहला कारण तो राजस्थानी मेरी मातृभाषा रही और हिंदी मैंने बाद में पढ़ने-लिखने के दौरान सीखी। राजस्थानी तो जुबान के आंटे में थी इसलिए राजस्थानी में लिखता हूं।
कविता के संदर्भ में क्या भाषा माध्यम ही महत्त्वपूर्ण है या राजस्थानी में लिखते हुए भी आप खुद को एक भारतीय कवि के रूप में देखते हैं?
आईजी- मैं राजस्थानी कवि होकर ही संपूर्ण भारतीय भाषाओं के कवियों की विरादर में खड़ा होता हूं। क्यों कि अन्य भारतीय भाषाएं भी लोक भाषाएं है।
राजस्थानी के कुछ लेखक अपनी रचनाओं को दोनों ही भाषाओं में मौलिक मानते हैं, उनकी एक जैसी रचनाएं राजस्थानी और हिंदी दोनों में देखी जा सकती है?
आईजी- यह वस्तुतः गलत बात है। मैं राजस्थानी में लिखता हूं तो राजस्थानी की ही बात करूंगा, मेरी राजस्थानी कविता को मैं हिंदी की कविता कह कर प्रकाशित करता हूं तो यह कोई अच्छी बात तो नहीं है। मैं इसको नैतिकता के स्तर पर भी ठीक नहीं मानता। लेकिन जो लोग ऐसा कर रहे हैं मेरे विचार से अपना संप्रेषण न होने के कारण ऐसा कर रहे हैं।
आज के बदलते दौर में लिखना क्यों जरूरी है, या कहूं कि आप क्यों लिखते हैं?
आईजी- मुझे मेरे लिए सबसे सहज काम कविता लिखना लगता है, सहज उस रूप में नहीं है। यह ऐसी सहजता है जो मेरे द्वारा संभव है। आज कविता लिखना इतना सहज नहीं रह गया है। कविता को हासिये पर डालने के सारे उपक्रम चल रहे हैं और इसलिए मैं मानता हूं कि आज कविता की जरूरत पहले से भी अधिक है।
आपने राजस्थानी कविता का पूरा बदलाव देखा, छंद और मुक्त छंद और उसके बाद आज की कविता। इस बदलाव को आप कवि-आलोचक के रूप में कैसे देखते हैं?
आईजी-मैं समझ गया आपकी बात, छंद में लिखता था गांव में डिंगळ काव्य की परंपरा थी लेकिन जब जोधपुर आया तब लगा कि समकालीनता के लिए मुक्त छंद जरूरी है। मैं पाठ्य या पठित मुक्त छंद जैसा नहीं आज भी मैं गति लय का निर्वाह करता हूं। छंद लिख कर सीख कर हम मुक्त छंद लिखते हैं तो मैं कहूंगा कि हम निराला की तरह छंद का ही प्रयोग कर रहे होते हैं। छंद नहीं आए और कहूं मैं मुक्त छंद में लिखता हूं इसे मैं ठीक नहीं मानता।
राजस्थानी साहित्य के संवर्धन में आलोचना की स्थिति पर कुछ कहना चाहेंगे?
आईजी-कमजोर पक्ष है इसे कहें गत्यात्मक नहीं है, आपकी और अर्जुनदेव चारण की किताबें आईं। पर यह या अन्य जो लिखा गया है वह निरंतर नहीं है। इसमें गति और निरंतरता की बहुत जरूरत समझता हूं।
फेसबुक जैसी आभासी दुनिया में त्वरित टिप्पणियां होती है। क्या इसमें गंभीरता है?
आईजी-नहीं यह गंभीरता नहीं है, लेकिन आप गंभीर टिप्पणी कर रहे हैं तो यह महत्त्वपूर्ण भी है। साहित्य और लोकप्रिय माध्यम की भाषा अलग है, त्वरिक टिप्पणियां साहित्यिक नहीं व्यक्तिगत होती है। इसमें साहित्यिक मूल्यों का अभाव होता है।
एक लेखक ने कहा कि राजस्थानी के सभी लेखक हिंदी समझते हैं, वे हिंदी माध्यम से पढ़े हैं। राजस्थानी में केवल अपनी मातृभाष के जुड़ाव के वशीभूत या ऋण को चुकाने के लिए राजस्थानी में लिखते हैं। क्या राष्ट्रप्रेम में राजस्थानी को छोड़ दिया जाना चाहिए?   
आईजी- क्या हमारी लोक भाषाओं के संवेदन में राष्ट्र प्रेम है ही नहीं क्या ? क्या राष्ट्र प्रेम किसी एक भाषा में अभिव्यक्त होता है।
राजस्थानी अकादमी लेखकों-राजनेताओं की उपेक्षा के कारण बंद पड़ी है।
आईजी-सरकारों की अंतिम दृष्टि में साहित्य-कला है वे केवल फोटो खींचवाने के बहाने साहित्य-कला के उपक्रम करते हैं। सब चुप है कि कोई लाभ हमें मिलने वाल है वह वंचित न हो जाए।
ऐसे प्रतिकूल समय में साहित्यकार का दायित्व क्या है?
आईजी-लेखक को लिखते जाना चाहिए बिना किसी की परवाह किए कि कोई अकादमी है या नहीं। छपना नहीं छपना तो बाद की बात है लिखना बहुत जरूरी है। 
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अप्रगतिशील लोग नहीं समझेंगे राजस्थानी का महत्त्व
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राजस्थानी मान्यता के विषय में आपको क्या लगता है? यह हमारा सपना सच में संभव होगा?
आईजी- मैं आरंभ से ही इसका पक्षधर रहा हूं लेकिन मैं चिल्लाने वाले लोगों के साथ नहीं हूं। पिछले चालीस-पचास वर्षों से साहित्यकारों ने आंदोलन चलाया लेकिन बाजारवाद के साथ ही ऐसे लोग इस आंदोलन में आए जिनको अपने नामों और चेहरों को ही आगे करने के प्रयास करते रहे हैं। वे राजस्थानी के नाम पर सब कुछ अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं। ऐसी प्रवृतियों से आंदोलन को न केवल पीछे किया है बल्कि वे गिनती के चंद लोग लोगों की आंखों में आ गए हैं।



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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

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संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

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