दिल्ली हिंदी अकादमी के कार्यक्रम भारतीय कविता प्रसंग में काव्य-पाठ
नीं रीझूंला म्हैं
मयनो चावूं म्हैं
कै शेषनाग रै फण माथै है
का किणी बळद रै सींगां माथै
आ धरती
मायनो चावूं म्हैं
कै म्हारी जड़ां जमी मांय है
का आभै मांय किणी डोर सूं
बंध्योड़ो हूं म्हैं ।
मायनो चावूं म्हैं
कै किणी रिधरोही भटकूंला
का पंख लगा उडूंला आभै मांय
किणी बीजै री आंख सूं
मायनो चावूं म्हैं
कै किणी पुटियै काकै री टांगां माथै है
का किणी किसन री आंगळी माथै
ओ आभो
बिरखा-बादळी का इंदरधनख सूं
नीं रीझूंला म्हैं
मायनो चावूं म्हैं
नहीं रीझूंगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं
कि शेषनाग के फन पर टिकी हुई है
या किसी बैल के सींगों पर
यह धरती !
जानना चाहता हूँ मैं
कि मेरी जड़ें ज़मीन में है
या आकाश में
किसी डोर से
बंधा हुआ हूँ मैं ।
जानना चाहता हूँ मैं
मैं वन-वन भटकूंगा
या पंख लगा कर उड़ूंगा
आकाश में
किसी अन्य की आँख से ।
जानना चाहता हूँ मैं
किसी बैया राजा की
टांगों पर है
या किसी कृष्ण की अंगुली पर
यह आकाश ।
बिरखा-बादली या इन्द्रधनुष से
नहीं रीझूंगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं ।
अनुवाद : मोहन आलोक
अभी तक नहीं भूली
मुझ तक पहुंचने के रास्ते
मैंने सहेज कर रखी है
तुम्हारी स्मृति
अपने सपनों के संग !
सीमाएं सदैव बदली
और कुछ बदले हम भी
पर इस बदलाव में
नहीं बदली, मेरे लिए-
तुम्हारी छवि
यदि बदल जाती
तो भूल जाती स्मृति-
मुझ तक पहुंचने के रास्ते ।
***
ठूंठ कहता है-
यह भी कोई जीना है
लाओ तुम्हारी कुलहाड़ी ।
मैं पहचानता हूं
प्रार्थना के भीतर छिपी लाचारी
ठूंठ करता है प्रणाम
मुक्ति की कामना में !ठूंठ के हाथ डरते हैं
जड़ों से
और मेरे हाथ
कुलहाड़ी से ।
ठूंठ के भीतर
अभी तक मैं देखता हूं
एक लक-दक वृक्ष
और अपने हिस्से की छाया ।
खेलती है छुप्म-छुप्पी
ऋतुओं के संग
छाया अपने हिस्से की
अपने हिस्से की छाया ।
***
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा
"सीमाएं सदैव बदली
ReplyDeleteऔर कुछ बदले हम भी
पर इस बदलाव में
नहीं बदली, मेरे लिए-
तुम्हारी छवि"
बेहद सुंदर !
"अपने हिस्से की छाया" इस कविता के ठूंठ की संवेदना भी मन को छू गई ।