कवि बनाए नहीं जा सकते और यह ऐसा चेहरा है कि जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता। सही अर्थों में कवि वह होता है जो अपनी विशिष्टाओं का अंहकार नहीं पालता। कुछ कवि हमारे बीच ऐसे हैं जो इसका अहसास कराते हैं कि कवि किसी दूसरे लोक का प्राणी नहीं होता वरन हम सब के बीच का एक सामान्य आदमी ही होता है। एक ऐसे ही विनम्र सौम्य शांत सरल स्वभाव के कवि है हम सब के प्रिय और आदरणीय श्री ओम पुरोहित ’कागद’। कागद जी को व्यक्तिगत रूप से जो जानते हैं वे सहमत होंगे कि आप कविताओं में जिस जीवन-राग की बात करते हैं वहीं जीवन-राग जीवन में स्वीकारते हैं, और बहुत कुछ भीतर छिपा कर भी बाहर से सदैव सर्वानुकूल सहज मिलते हैं। इसी क्रम में यह भी कहा जा सकता है कि “थिरकती है तृष्णा” काव्य संग्रह में जो चित्र और दृश्य हमें शब्दों से देखने को मिले हैं वह राजस्थान ही नहीं समग्र हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्वर के कारण सदैव रेखांकित किए जाते रहेंगे।
कविता के विषय में बात करते समय यहां एक प्रसंग स्मृति में आ रहा कि मैंने भाई कागद जी से कविताओं के विषय में एक सवाल किया था कि आपको समाज में राजस्थानी कवि के रूप में अधिक सम्मान मिला या हिंदी कवि के रूप में ? तब उनका जबाब था कि राजस्थानी वाले राजस्थानी का नहीं हिंदी का मानते और हिंदी वाले हिंदी का नहीं राजस्थानी का मानते। तो मित्रों सचमुच यह त्रासदी रही है। किंतु जब हम कागद जी के समग्र साहित्य का सावधानी पूर्वक अवलोकन करते हैं तो लगता है कि यह कवि हिंदी और राजस्थानी का कवि नहीं वरन एक संपूर्ण भारतीय कवि है। क्या अकाल चित्र और कालीबंगा पर आधारित कविताएं किसी एक भाषा तक ही ठहरती है, नहीं इन व्यापक जन सरोकारों को समय किसी सीमा में नहीं बांध सकता। भाषाओं का क्षेत्र इतना विशाल है कि कहां क्या हो रहा है हम सब कुछ नहीं जान सकते हैं, श्री ओम पुरोहित की अकाल से जुड़ी कुछ कविताओं का गुजराती अनुवाद मैंने राजकोट प्रवास के दौरान वहां की प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका “कविता” में देखा था, लेकिन जब कवि से बात की तो पता चला कि उन्हें इसकी खबर ही नहीं की गई! क्या सभ्यता और संस्कृति अपने किसी विशेष क्षेत्र तक ही अपना महत्त्व रखती है? नहीं, क्षेत्र की सीमाएं और आंख की अपनी सीमा हमारी अपनी है... कवि श्री ओम पुरोहित “कागद” की राजस्थानी कविता-यात्रा का में आरंभ से ही पाठक रहा हूं और पिछले साठ वर्षों की राजस्थानी कविता का आकलन करते समय मैंने आपको राजस्थानी के टोप टेन कवियों में एक माना है। यहां उस आलेख का मूल अंस आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा-
"इसै समै / कविता बांचणौ / अनै लिखणौ / किणी जुध सूं स्यात ई कम हुवै ।" (कविता) ओम पुरोहित ‘कागद’ रा छव कविता संग्रह प्रकाशित हुया है- अंतस री बळत(१९८८), कुचरणी (१९९२), सबद गळगळा (१९९४), बात तो ही (२००२) आंख भर चितराम (२००९) अर पंचलड़ी (२००९) आं रचनावां में कवि री सादगी, सरलता, सहजता अर संप्रेषण री खिमता देखी जाय सकै। कवि राजस्थानी कविता रै सीगै नैनी कविता री धारा नै नुवै नांव दियो- ‘कुचरणी’ अर केई अरथावूं कुचरणियां रै पाण आधुनिक राजस्थानी री युवा-पीढ़ी री कविता में आपरी ठावी ठौड़ कायम करी है। कविता नै प्रयोग रो विसय मानण वाळा केई कवियां दांई ओम पुरोहित ‘कागद’ री केई कवितावां में प्रयोग पण देख्या जाय सकै है अर एक ही शीर्षक माथै केई-केई कवितावां सूं उण विसय नै तळां तांई खंगाळणो ई ठीक लखावै। कवि रो कविता में मूळ सुर अर सोच मिनखा-जूण अनै मिनख री अबखायां-अंवळ्या खातर है जिण में कवि ठीमर व्यंग्य ई करण री खिमता राखै।
इसी क्रम में मैं मेरे द्वारा लिखी गई एक टिप्पणी भी लगे हाथ प्रस्तुत कर दूं जो मैंने कवि कागद जी के राजस्थानी काव्य संग्रह- “आंख भर चितराम” के लिए लिखी थी-
राजस्थानी कविता में पैलो लांठो बदळाव मौखित परंपरा सूं लिखित रूप में कविता रो ढळणो हो। आज आपां कविता में दूजो लांठो बदळाव इंटरनेट री धमक पछै देख सकां। ओ कविता रो तीजो दौर है जिण में कविता आपरै नुंवै सरूप में चितरामां रै उणियारै नुंवै-नुवै दीठावां री जुगलबंदी कर रैयी है। बगत रै साथै आगै बधण वाळा कवियां में एक नांव ओम पुरोहित "कागद" रो है। "आंख भर चितराम" कविता-पोथी इक्कीसवीं सदी री टाळवीं पोथी इण सारूं मानीजैला कै कवि ओम पुरोहित "कागद" आपां सांमीं जाण्यां-अणजाण्यां जिकां चितराम राख्या है बै बुणगट में साव नुंवा है। आपरी भासा अर रचाव रै पाण कवि राजस्थानी कविता रो एक इसो आंटो काढ्यो है जिको आज रै जुग री जरूरत है। कमती सूं कमती सबदां में कविता रचणी अर उण पछै ई भासा में लय नै साधणो घणो अबखो काम मानीजै, आ खासियत जाणै कवि नै इण कविता-संग्रै री अमूमन सगळी कवितावां में किणी वरदान रूप हासल हुयोड़ी है। ओम पुरोहित "कागद" री कविता में राजस्थान री धरती आपरै रूपाळै रंग-रूप में सज-धज उतरी है। कवि आपरै आसै-पासै रा दीठाव रचती बगत जिका चितराम कविता में कलम सूं कोरिया है बै आपां रै अठै री धरती सूं जुड़्या थका नै घणा रूपाळा लखावै जैड़ा है। अठै री धरती माथै बिखरी छटवां नै कवि हियै सूं अंगेजी है। कवि आपरी कलम री कोरणी सूं जिका चितराम रचण री आफळ करी है बै घणा मनमोवणा अर किणी मूंढै बोलतै रंगीन फोटूवां दांई कवितावां में आपां नै निगै आवै। लोक अर जन सूं जुड़ाव रा केई केई चितरामां भेळै काळीबंगा माथै लिख्योड़ी कवितावां री लड़ी इण पोथी री न्यारी निरवाळी ठौड़ बणावैला। पतियारो है कै झींणी संवेदना सूं सजी इण पोथी रो राजस्थानी कविता जातरा में जोरदार स्वागत हुवैला।
अकादमिक रूप से कुछ कहें तो कवि श्री ओम पुरोहित “कागद” का जन्म 05 जुलाई 1957 को केसरीसिंहपुर, श्रीगंगानगर में हुआ। आपकी प्रकाशित कृतियां हैं- मीठे बोलो की शब्द परी(१९८६), धूप क्यों छेड़ती है (१९८६), आदमी नहीं है(१९९५), थिरकती है तृष्णा (१९९५) सभी हिन्दी कविता-संग्रह। तथा अंतस री बळत(1988), कुचरणी(1992), सबद गळगळा(1994), बात तो ही (2002)' कुचरण्यां (2002) पंचलडी (२०१०) आंख भर चितराम(२०१०) राजस्थानी कविता-संग्रह । इन के अतिरिक्त जंगल मत काटो (नाटक-२००५), राधा की नानी (किशोर कहानी-२००६), रंगों की दुनिया (विज्ञान कथा-२००६), सीता नहीं मानी(किशोर कहानी-२००६), जंगीरों की जंग (किशोर कहानी-२००६) तथा संपादक के रूप में सर्वविदित है कि राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका “जागती जोत” का संपादन किया और वर्षों पहले किंतु आज भी चर्चित “मरुधरा” (विविधा-१९८५) का संपादन किया। दैनिक भास्कर गंगानगर के सतंभ “आपणी भाषा आपणी बात” के लिए आपने विविध विषयों पर अनेकानेक आलेख लिखे।
हिंदी और राजस्थानी के साथ साथ आपको पंजाबी भाषा में भी समान गति प्रदान है। आपने कुछ कविताएं पंजाबी में भी लिखी हैं। पुरस्कार और सम्मान की बात करें तो ‘आदमी नहीं है’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘सुधीन्द्र पुरस्कार’, ‘बात तो ही’ पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ओर से काव्य विधा का गणेशी लाल व्यास उस्ताद पुरस्कार मिला अनेक संस्थाओं द्वार मान सम्मान के क्रम में प्रमुख है- भारतीय कला साहित्य परिषद, भादरा का कवि गोपी कृष्ण ‘दादा’ राजस्थानी पुरस्कार, जिला प्रशासन, हनुमानगढ़ की ओर से कई बार सम्मानित, सरस्वती साहित्यिक संस्था (परलीका) की ओर सम्मानित। सम्प्रति में आप शिक्षा विभाग, राजस्थान में प्रधानाध्यापक पद पर सेवारत है, यहां उल्लेखनीय सब से महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अंतरजाल के अंतर्गत - “कागद हो तो हर कोई बांचे” ब्लॉग बेहद चर्चा में रहा है और फेसबुक पर राजस्थानी की अलख आपने ही जगाई है। मैं सर्वप्रथम जिस सहजता और सरलता की बात कर रहा था उसका सबसे बड़ा प्रमाण कि कवि ओम पुरोहित कागद आपको फेस बुक पर सर्वसुलभ रूप में मिलते हैं, मैं यदि यह भी कह दूं कि केवल एक मात्र वरिष्ठ कवि ओम पुरोहित ही है जिनकी ऐसी और इतनी व्यापकता अंतरजाल पर हम देख सकते हैं।
“लेखक से मिलिए” कार्यक्रम में आपकी रचनाओं पर विशद चर्चा मैं नहीं कर रहा हूं क्यों कि मुझे लगता है यहां यह अनुकूल मंच नहीं है, फिर अभी। इस कार्यक्रम में तो लेखक खुद अपनी बात कहते हैं- अपनी सृजन यात्रा का ब्यौरा विस्तार से सुनाएंगे साथ ही कुछ चयनित रचनाओं का पाठ और सवाल-जबाब जैसे कार्य भी शेष है। अपनी व्यक्तिगत विवशताओं के चलते मैं आपके मध्य नहीं हूं जिसका मुझे खेद है। एक बार यहां आप सभी के समक्ष क्षमा याचना के साथ मैं कवि कागद जी को अपना प्रणाम लिखता हूं।
-नीरज दइया
अकादमी के साथ साथ आपने यह पोस्ट डालकर कागद जी के व्यक्तित्व से परिचय करवाया ...साधुवाद
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