मोहन आलोक - एक दिव्य काव्य-पुरुष/ डॉ. नीरज दइया
मोहन आलोक को इस संसार से गए दो साल से अधिक समय हो गया है किंतु अब भी उनके जाने का दुख मुझ में इस तरह समाया है कि उन्हें याद करते हुए मैं विचलित हो जाता हूं। जानते हुए भी हर बार जीवन-मृत्यु के प्रश्नों से जूझता हूं, एक मन कहता है कि वे पंचतत्व में विलीन हो चुके किंतु दूसरा मन कहता है वे इसी संसार में है हमारे आस-पास। कवि कभी मरता है भला! वह आपने शब्दों से साहित्य इतिहास में अमर रहता है। पहले वे एक देह थे और दैहिक रूप से संसार से कूच कर गए, किंतु वे अपने परिजनों और चाहने वालों के भीतर किसी अंश रूप ही सही विद्यमान है।
मोहन आलोक के विषय में कुछ भी लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है। उन्हें हर पढ़ने-लिखने वाल व्यक्ति जानता है और जो उनके संपर्क में कभी रहे हैं, वे तो उन्हें कभी भूल ही नहीं सकते हैं। वे एक साहित्यकार और व्यक्ति के रूप में अपने दुश्मनों को भी प्रभावित करने की अद्वितीय क्षमता रखते थे। यह सच है कि मुझे उनका सान्निध्य मेरे पिता सांवर दइया के कारण विशेष मिला। हमारी कहानी लंबी है और मेरा मन है कि एक पूरी किताब उन पर आए। एक किसी आलेख में मैंने उनके विषय में लिखते हुए ‘दिव्य काव्य-पुरुष’ विशेषण प्रयुक्त किया तो एक आलोचक मित्र ने चुटकी ली और इसका उपहास बनाते हुए अपनी अज्ञानता प्रकट की। व्यक्ति के रूप में यदि छोड़ कर केवल एक कवि, गीतकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, निबंधकार, अनुवादक, संपादक और राजस्थानी भाषा मान्यता के संघर्ष के संदर्भ में ही बात करेंगे तो देखेंगे उनकी विलक्षण प्रतिभा के घटकों में ‘दिव्यता’ यत्र-तत्र सर्वत्र सामहित है।
मोहन आलोक हमारी भाषा की एक बड़ी आवाज के रूप में पहचाने गए और कविता में खासकर ‘डांखला’-‘सॉनेट’ के जनक रहे हैं। उनका जन्म 03 जुलाई, 1942 को चूरू जिले के किशनपुरा में हुआ और 19 अप्रैल, 2021 वह तारीख जिस दिन उनकी ‘दिव्यता’ का एक नया आध्यय आरंभ हुआ है। वे 80 साल के जीवन में बहुत कम बीमार रहे किंतु जब मुझे पता चला कि वे पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे हैं, और मैं जब मिलने उनके घर पहुंचा तो दहल गया। एक जीवट कवि बिस्तर में क्षीण काया लिए किसी पोटली भी भांति मुडा लेटा हुआ दिखाई दिया। लगा जैसे यह अब अपने सामान को समेटने की प्रक्रिया में है। होने को बात भी हुई और किंतु उनकी पीड़ा को देखकर मैं भीतर तक दुख से भर गया, जैसे मेरी हिम्मत ने जवाब दे दिया और मैं भाई कृष्ण कुमार ‘अशु’ के साथ वहां से भरे मन लौट आया। उनके पुत्र आनंद ने विस्तार से विगत दिनों का हाल सुनाया था उसी में मैं काफी दिन उलझा रहा और फिर एक दिन उनके नहीं रहने के सामाचार मिले।
सोलह वर्ष की वय से लिखना आरंभ करने वाले मोहन आलोक ने करीब साठ से अधिक वर्षों लेखन किया और अबाध किया। जब किताबें नहीं छपती थी या कहें कम छपती थी तब उन्होंने एक विकल्प के रूप में रबड़ की मुहर से पहली किताब ‘संभावित हम’ का प्रकाशन कर एक अभिनव कार्य किया। यह वह दौर था जब उन्होंने राजस्थानी में मुक्तक छंद को ‘डांखळा’ नाम देते हुए राजस्थान पत्रिका के लोकप्रिय प्रकाशन ‘इतवारी पत्रिका’ में एक स्तंभ आंरभ किया था। ‘डांखळा’ निरर्थक अभिव्यक्ति का एक नया छंद कवि मोहन आलोक की देह है। यह स्तंभ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके माध्यम से इतवारी पत्रिका से पाठक जुड़े और पाठकों ने राजस्थानी पढ़ना सीखा। राजस्थानी नई कविता के दौर में नई कविता के साथ ‘गीत’ को आधुनिक भावबोध देने का काम मोहन आलोक ने किया। आपकी पहली किताब ‘ग-गीत’ ग्राममंच श्रीगंगानगर से 1981 में प्रकाशित हुई जिसे कवि ने अपने प्रेरणा पुंज आदणीय डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी को समर्पित करते हुए लिखा कि उन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से कविता का क ख ग सीखा और वर्तनी तक की भूलों को सुधारा। कवि मोहन आलोक बच्चन जी से प्रभावित रहे और बाद में उनसे उनके व्यक्तिगत संबंध भी रहे। नगर परिषद श्रीगंगानगर में नौकरी करते हुए मोहन आलोक का दायरा भारतीय कविता से रहा।
राजस्थानी में मोहन आलोक को प्रयोगवादी कवि के रूप में ख्याति इसलिए मिली कि वे ऐसे कवि हैं जिन्होंने छंद को ना केवल पकड़े रखा वरन उसे आधुनिक बनाते हुए उसमें प्रयोग संभव किया। यह शोध खोज का विषय है कि उन्होंने जीवनकाल में कितने ‘डांखळा’ लिखे। उनकी ‘डांखळा’ (1983) किताब के बाद 2021 में फिर ‘डांखळा 104 नॉट आउट’ संग्रह का आना जैसे किसी काल-चक्र का वर्तुलाकार पूरा होना है। अंतिम किताब के एकदम अंत में परिचय में उन्होंने लिखवाया संप्रति बीमार और इसी के साथ वे अपनी कहानी पूरी करते हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ‘डांखळा’ की मांग सदाबहार है और इसी के चलते ‘डांखळा’ नाम से वर्ष 2012 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें नई रचनाओं के साथ पिछली रचनाओं का पुनर्मुद्रण भी हुआ है। ‘डांखळा’ नाम से एक स्वतंत्र विधा राजस्थानी में विकसित हो चुकी है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विद्यासागर शर्मा की भी पुस्तक ‘डांखळा’ नाम से प्रकाशित हुई जिसमें मोहन आलोक जी ने विस्तार से भूमिका लिखी है।
मोहन आलोक की कविता में लोक और समाज के साथ एक आध्यत्मिक रूप अथवा घटक भी जुड़ा हुआ है। आध्यत्मिक रूप से उनकी सबलता रूबाई छंद में कृति ‘आप’ (2021) कृति में देख सकते हैं। सोरठा छंद का नया रूप ‘एकर फेरू राजियै नै’ (1986) में मिलता है तो अंग्रेजी के लोकप्रिय छंद को ‘सौ सानेट’ (1991) में देखना हमें चकित करता है। वेलियो छंद का नया रूप ‘चिड़ी री बोली लिखो’ (2003) में देखा जा सकता है। एक उदाहरण जिसमें उन्होंने अपने परिवार के विषय में लिखा है-
‘माया’ आण प्रथम बांध्यो ‘मुझ’/ ‘चिंता’ जलमी तणै चित।/ अति चिंतन ‘आनंद’ उपज्यो,/ हुई तणै ‘संतोष’ हित॥ इसमें ‘माया’ श्रीमती आलोक है तो आनंद पुत्र और चिंतामणि, संतोष दो पुत्रियां वर्णित है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कविता में निजता के साथ-साथ अर्थ को अनंत आकाश देना उनकी विशिष्टता रही।
मोहन आलोक की चयनित रचनाओं के संग्रह ‘बानगी’ (2011) में उनकी नई रचनाएं भी है। खेजड़ी और बकरी रचना बेहद लोकप्रिय हुई किंतु उनकी कविता यात्रा में ‘वनदेवी - अमृत’ (2002) एक अति महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय कृति है जो राजस्थानी के साथ तुषार घोष कृत अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुई थी जिसे पर्यावर्णविद श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने अपनी भूमिका में पर्यावरण-पुराण कहा। मोहन आलोक के बहुगुणा जी से भी संबंध-संपर्क रहे और वे महाकवि तो थे ही किंतु ‘वनदेवी - अमृता’ महाकाव्य लिखकर जैसे विधिवत महाकवि भी हुए। इसे बाद हिंदी में भी महाराजा अग्रसेन के जीवन पर आधारित प्रगतिशील महाकाव्य ‘अग्रोक’ (2019) का प्रकाशन हुआ जो उनकी दोनों भाषाओं में मेधा का परिचायक है। जीवन के अंतिम वर्षों में मोहन आलोक जी ने हिंदी में काफी नई कविताएं लिखी जिनका केंद्रीय विषय मृत्यु है। कृति बानगी के लेखकीय परिचय में प्रकाशन के इंतजार में छपी पुस्तकों की सूची में चार हिंदी कविता संग्रह- चूं, मैं पेड़ लगा रहा हूं, इस तरह आती है मृत्यु, ईश्वर अप्रकाशित होने की जानकारी मिलती है।
प्रयोगवाद की चर्चा जब भी राजस्थानी साहित्य में होगी, पहला नाम प्रयोग की विपुलता और सफलताओं का मोहन आलोक याद किया जाएगा। उन्होंने सानेट को पहले ‘चउदशा’ की संज्ञा दी जो उनके संग्रह ‘चित मारो दुख नै’ (1987) में 11 छपे, किंतु फिर ‘सौ सानेट’ जिसमें 102 सानेट संग्रहित में संभवतः अपने मित्र सांवर दइया का आग्रह रखते हुए उन्होंने इसे सानेट ही कहा है। यह भी सुखद है कि अंग्रेजी साहित्य में ‘लिमरिक’ जैसे चर्चित छंद को राजस्थानी में ‘डांखळा’ बनाने के बाद पंजाबी में मोहन आलोक ने उसे ‘डक्कै’ नाम से प्रस्तुत किया, जो हास्य-व्यंग्य की ऐतिहासिक कविताएं है। ‘डांखळा’ के कारण उनका नाम विश्व साहित्य कोष में भी दर्ज है।
मोहन आलोक ने उमर खैय्याम की रूबाइयों, धम्मपद, जफरनामा, चेखव की कहानियों का राजस्थानी में अनुवाद किया है। गुरु गोविंद सिंह के औरंगजेब को फारसी में लिखे ऐतिहासिक लंबे पत्र ‘जफरनामा’ का हिंदी अनुवाद करना और साहित्य में आनंद से इतर इतर विषय पर पढ़ना उनकी मेधा को निखारता गया। वर्ष 1981 में राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) और 1983 में साहित्य अकादमी नई दिल्ली से पुरस्कृत कवि मोहन आलोक का ‘अभनै रा किस्सा’ (2015) और ‘मोहन आलोक री कहाणियां (2010) संचयन- नीरज दइया द्वारा राजस्थानी गद्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय योगदान माना जाता है।
किसी रचनाकार के विषय में चर्चा करते समय उसके रचना-संसार से उदाहरण भी दिए जाने चाहिए किंतु यहां विस्तार-भय से केवल चार पंक्तियां प्रस्तुत है जो मोहन आलोक ने इस संसार की नस्वता और ईश्वर के विषय में रूबाई के रूप में प्रस्तुत की थी-
म्हारी नस्वर निःसार आंख्यां सूं
नीं होवण मैं सुमार आंख्यां सूं
दोय आंख्यां रो माजणो के है?
थे नीं दीखो हजार आंख्यां सूं।
आंखों से देखने-दिखाने की इस प्रक्रिया में अत्यधिक विकास के बाद भी हमारी सीमाओं की अभिव्यंजना इससे बेहतर नहीं हो सकती है। मोहन आलोक की कविता में अध्यात्म, दर्शन और लोक जीवन का जिस सहजता से निर्वाहन मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। फिराक गोरखपुरी की पंक्तियां हैं- ‘‘आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो/ जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है।’’ की तर्ज पर हम मोहन आलोक के विषय में कह सकते हैं कि आने वाली नस्लें हम पर फ़ख़्र करेंगी हमने ‘मोहन आलोक’ को देखा है।
मोहन आलोक के विषय में लिखना मेरे लिए हरि अनंत हरिकथा अनंता जैसा है क्योंकि उनके साहित्य और स्वयं उनके साथ मेरा लंबा संबंध-संपर्क रहा है और मैंने उनके कहानी संग्रह की लंबी भूमिका के अतिरिक्त भी उनकी अनेक कृतियों के विषय में लिखा है। उनकी साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कृति ‘ग-गीत’ के अलावा भी अनेक नई कविताओं का हिंदी अनुवाद भी किया है। आलोक जी मेरे प्रिय रचनाकारों में से एक हैं उनके विषय में लिखना अब बेहद कठिन प्रतीत होता है क्योंकि जब तक वे थे तब उनसे संवाद द्वारा अपने किसी प्रश्न का उत्तर पाना सरल था। इच्छाएं बनी रहती है तो कभी फलीभूत भी होती है और मैं जल्दी ही एक समग्र पुस्तक मोहन आलोक के विषय में दे सकूं यह मेरा प्रयास है। अस्तु इस आलोक को एक विषय प्रवेश के रूप में प्रस्तुत करते हुए मैं उनको शत-शत प्रणाम करता हूं जिनसे न केवल मैंने वरन हमारी पीढ़ी के अनेक लेखकों कवियों ने बहुत कुछ सीखा-समझा। हम उनकी प्रेरणा और उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए कुछ बेहतर कर सकेंगे तो उनको हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।