चिकित्सा जगत का विद्रूप चेहरा : लाइलाज
लाइलाज उपन्यास का मुख्य पात्र इंद्राज पूरे उपन्यास में लोक मान्यता को पोषित करता है कि जड़ से इलाज तो देशी दवा ही करती है, अंग्रेजी दवा रोग को दबा भर देती हैं। इसी केंद्रीय सूत्र के पीछे लेखक ने धीरे-धीरे उपन्यास का विस्तार किया है जिसमें न केवल लोग मान्यताएं, लोक विश्वास, रूढ़ियां, व्यक्ति के मानसिक सामाजिक द्वंद, भ्रष्टाचार, क्षीण होती संवेदनशीलता अपने पुरजोर यथार्थ के साथ सहज सरल भाषा में अंकित होती चली जाती है वरन यह पूरा उपन्यास चिकित्सा जगत के विद्रूप चेहरे का प्रमाणिक दस्तावेज भी बनता चलता है। हमारे देश में चिकित्सक को भगवान के समकक्ष मानने वाले लोग भी हैं, यह उपन्यास असल में उसी भगवान के चेहरे को बचाए जाने का एक जतन है। आज के बदलते दौर में जब मूल्यों का पतन चारों तरफ दिखाई देता है तब यह उपन्यास किसी छोर से उन्हीं मूल्यों के बचाव की पैरवी करता है। यह लेखक की इमानदारी है कि वह सच्चाई का दामन अंत तक थामे रखता है। कहीं-कहीं उपन्यास में लगता है लेखक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन कर रहा है किंतु लाइलाज होती इस व्यवस्था जो कि खुद इलाज करने वाली है के विषय में यह एक शानदार विमर्श है। ग्रामीण और शहरी समाज के बीच जहां अब भी अशिक्षा है वहीं शिक्षा के बाद भी चरमराती देश की व्यवस्था भी यहां देखने को मिलती है। विकास के मार्ग पर दौड़ते हुए देश के एक साधारण इंसान इंद्राज के घुटने का इलाज जरूरी है क्योंकि ऐसे अनेक इंद्राज इस देश में हैं जो कभी खुद के अज्ञान के कारण तो कभी ज्ञान के कारण ठगे जा रहे हैं। इस उपन्यास में व्यंग्यात्मक शैली और यथार्थ चित्रण के बीच लेखक रवींद्र कुमार यादव ने सुंदर समन्वय स्थापित किया है। इस उपन्यास का पाठ हमारे अनदेखे अथवा बहुत कम देखे जाने विषय को प्रामाणिकता के साथ जानना और समझना भी है। यह किताब कलमकार मंच से प्रकाशित हुई है।
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