नगर संवाददाता & हनुमानगढ़ /
विख्यात कवि व आलोचक डॉ. नीरज दइया का मानना है कि आलोचना रचना की पैरोकार है। लेखकों के मन में उठ रहे द्वंद्व को सही तरीके से आलोचक ही समझ पाता है और समीक्षा के माध्यम से उन्हें उन कमियों से रूबरू करवाता है जो लेखन के दौरान रह जाती है। डॉ. दइया की पुस्तक ‘आलोचना रै आंगणै’ हाल में प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने राजस्थानी साहित्य के पिछले साठ साल का विश्लेषण किया है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान के राजस्थानी पाठ्यक्रम विषय समिति के संयोजक दइया राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी से जुड़े रहे हैं। पेशे से अध्यापक नीरज दइया केंद्रीय विद्यालय संगठन में पीजीटी ‘थिंक क्वेस्ट’ संदर्भ व्यक्ति हैं। एक दिन के प्रवास पर हनुमानगढ़ पहुंचे डॉ. दइया से ‘भास्कर’ ने राजस्थानी साहित्य से जुड़े तमाम बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा की।
राजस्थानी साहित्य में आलोचना की दशा व दिशा क्या है? सवाल पर दइया कहते हैं ‘राजस्थानी साहित्य का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है। अकादमी का काम ठप है। इससे साहित्य सृजन भी अवरुद्ध हुआ है। जब साहित्य का सृजन ही नहीं होगा तो उसकी आलोचना कैसे होगी? राजस्थानी साहित्य अति प्राचीन है। करीब दो लाख प्राचीन पांडुलिपियों का प्रकाशन नहीं हो पाया। फिर भी स्थिति संतोषजनक है।’ राजस्थानी साहित्य के भविष्य पर उनका कहना था कि इसमें असीम संभावना है। बदलते परिवेश में जब हिंदी व अंग्रेजी का बोलबाला है तो इससे राजस्थानी सहित सभी क्षेत्रीय भाषाओं पर असर पड़ा है। ठेठ राजस्थानी शब्दों को क्षरण से जूझना पड़ रहा है लेकिन इसके लिए सामूहिक प्रयासों की जरूरत है। आम राजस्थानी अगर भाषा को लेकर गंभीर होगा तभी इसके गौरवशाली अतीत को बरकरार रखा जा सकता है।
भाषा की लोकप्रियता में सरकारी प्रयास को बाधक तथा निजी स्तर पर प्रयासों पर चर्चा करते हुए दइया ने कहा कि अंग्रेजी व हिंदी के बढ़ते प्रभाव से राजस्थानी भाषा की उपेक्षा हुई है। भाषा को लेकर जन आकांक्षा जरूरी है। टीवी चैनलों पर कार्टून व कॉमिक्स आदि के प्रचलन से भाषा को चुनौती मिली है। फिर भी राजस्थानी भाषा को मान्यता मिलने पर स्थिति में बदलाव की उम्मीद है। राजस्थानी साहित्य की आलोचना में कोई बदलाव आया है? दइया बोले ‘जी हां, आलोचना का तरीका बदल रहा है। कुछ आलोचक पुस्तक के प्रकाशन व आवरण देखकर समीक्षा करते हैं तो कोई परिचयात्मक समीक्षा को महत्व देते हैं। आलोचना के क्षेत्र में नवीन युग का सूत्रपात हुआ है अब आलोक रचना को आलोचना के नवीन मानदंडों से परखते हैं।’
आलोचना व आलोचक के बीच द्वंद्व संबंधी बात पर वे बोले ‘हर पंक्ति का अलग अर्थ है। आलोचक लेखक के मंतव्य को जानने का प्रयास करता है। रचना में लेखकीय दबाव को खोजा जाता है। जिन विषयों तक लेखक जाने से रह जाता है, आलोचक वहां तक पैठ करता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो आलोचक सेतु का काम करता है। वह रचना में तमाम संभावनाओं की तलाश करता है।’
आलोचना व बुराई में अंतर को लेकर पूछे सवाल पर दइया ने कहा कि आलोचना का मूल भाव है समालोचना। प्राय: रचना को विपक्ष की तरह देखता है। लेखक व आलोचक की अपनी सीमाएं हैं। सजग व ईमानदार आलोचना हो तो बेहतर परिणाम की उम्मीद करते हैं। कवि, आलोचक व लेखक होने के कारण किस विधा में सर्वाधिक वक्त देते हैं? दइया कहते हैं ‘कविताओं के साथ लेखन की शुरुआत की थी। फिर अनुवाद की तरफ रुख किया। इसलिए सभी विधाओं के निकट रहकर न्याय करने की कोशिश कर रहा हूं।’
हनुमानगढ़ भास्कर
बहुत ही सार्थक बातचीत है..राजस्थानी भाषा के लिए जन आकांक्षा की जरूरत है सब जानते हैं, मानते हैं पर यह कहते हुए दुख होता है कि राजस्थानी में सिर्फ़ आकांक्षाओं का ही बोलबाला है, जन की भागीदारी है ही नहीं और जब तक राजस्थानी के लिए जन की सक्रिय भागीदारी नहीं होगी..राजस्थानी का उन्नयन और विकास नहीं होगा
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