शतदल में प्रकाशित कविताओं पर कवयित्री निवेदिता भावसार की टिप्पणी
हमने कल्पना की , और निकल पड़े सच की तलाश में। और जब सच जाना तो ख़ारिज कर दिया कल्पना को। कई दफा यूँ भी हुआ सच जानकर भी हमने उसे नहीं अपनाया। कल्पना का स्वाद हमें सच से ज़्यादा मीठा जो लगा।
आइये आज मिलते हैं ऐसे कवि से जो कहते हैं "नहीं मैं नहीं रीझूंगा सूरज चाँद की गुड़कती गेंदों पर जानना चाहता हूँ मैं "
जी हाँ आज के हमारे शतदल के तिरपनवे कवि हैं श्री नीरज दइया जी। शतदल में शामिल इनकी चारों कवितायेँ "बच्चे हैं पहाड़","जानना चाहता हूँ मैं " , "नींद के भीतर बाहर " और "पन्क्तियों में रविवार " जैसे इनके किसी बच्चे की तरह साफ़ मन का आइना है।
आपकी चारों ही कवितायेँ मुझे बेहद पसंद आई। आज पढ़ते वक़्त यूँ लगा जैसे मेरा हर बात को जानने की उत्सुकता लिए बचपन फिर से जी उठा।
सर , आपकी कविता "बच्चे हैं पहाड़" बेहद ही प्यारी लगी मुझे। सच आपने तो इन खामोश पत्थरों को भी बोलना सिखा दिया। और वो भी कितने प्यार से।
यही तो प्रकृति से सच्चा प्रेम है के फूलों के सूखने भर से हमारी आँखे नम हो जाएँ।
आइये मुस्कुराते हुए पढ़ते हैं ये कोमल सी कविता -"बच्चे हैं पहाड़ "
"पहाड़ पर चढ़ा आदमी चिल्लाता है ज़ोर से
जिसे वह पुकारता है ,पहाड़ भी पुकारते हैं उसे
उसके साथ
पहाड़ चाहते हैं मिल जाए वह उसे, वह चाहता है जिसे
कहता है मेरा मित्र -बच्चे हैं पहाड़
वे अपने आप नहीं बोलते, देखो मैं समझाता हूँ तुम्हे
मैं बोलूंगा -एक पहाड़ भी बोलेंगे -एक
फिर वह हंसने लगा हंसने लगे पहाड़ भी "
आह कितनी खूबसूरत है ये कविता। कितनी प्यारी। सच ऐसा लगा जैसे मैं किसी पहाड़ की ही उंगली थामे खड़ी हूँ और पुकार रही हूँ किसी ऐसे का नाम जो मुझे मिलना नहीं। फिर भी मैं खुश हूँ आती हुई प्रतिध्वनि के साथ। लग रहा है के जैसे कोई तो मेरा साथी है जो चाहता है "मिल जाये उसे वो जिसे वो चाहता है "
सच सर जी बेहद ही प्यारी कविता है।
नीरज सर की एक खास बात और बताऊँ जैसे इन्होने हिंदी भाषा से प्रेम किया उससे कई ज़्यादा प्यार इन्होने अपनी राजस्थानी भाषा को भी दिया। नीरज सर सिर्फ नाम को ही प्रेम नहीं करते , इन्होने राजस्थानी भाषा को के साहित्य को आगे बढ़ाया और अपने खूबसूरत शब्दों से उसे संवारा भी।
कवि का उत्सुक मन कल्पनाओं के संसार से सिर्फ प्रेम करना ही नहीं जानता , बल्कि उसके पीछे के रहस्यों को भी जानने की कोशिश करता है। धरती, आकाश और इस संसार के निर्माण को लेकर जाने कितनी ही लोक कथाएं गढ़ी गयीं। ये जानते हुए भी के सब झुठ है फिर भी हम इन्हे बड़े ही चाव से सुनते हैं। और अंदर ही अंदर सोचते हैं काश के ये सच होता।
लेकिन कवि इन्ही कल्पनाओं इन्ही मिथकों से निकल कर संसार का सच जानना चाहता है। आइये पढ़ते हैं ये कविता -"जानना चाहता हूँ मैं "
"सूरज चाँद की गुड़कती गेंदों पर नहीं रीझूंगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं शेषनाग के फन पर टिकी हुई है या
किसी बैल के सींगों पर यह धरती
जानना चाहता हूँ मैं
कि मेरी जड़ें ज़मीन में हैं या आकाश में
किस डोर से बंधा हुआ हूँ मैं
जानना चाहता हूँ मैं
मैं वन वन भटकूंगा या पंख लगा कर उड़ूंगा
आकाश में किसी अन्य की आँख से
जानना चाहता हूँ मैं
किसी बैया राजा की टांगों पर है या
किसी कृष्ण की अंगुली पर यह आकाश
बिरखा बादली या इन्द्रधनुष से नहीं रीझूँगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं "
आह सच बेहद ही प्यारी कविता - यूँ लगा जैसे किसी बच्चे ने चाँद के मामा होने का प्रमाण मांग लिया है।
सच जिस दिन हमारी मन की "यह क्या है " जानने की उत्सुकता समाप्त हो जाए समझ लेना चाहिए हमारे अंदर छुपा वह बच्चा मर गया है।
नीरज जी की अगली कविता "नींद के भीतर बाहर" भी एक बेहद मासूम सी कविता है। नींद, जो की खुद ही अपने आप में एक बहुत बड़ा रहस्य है। कहते हैं उस वक़्त भी हमारा मन सबसे ज़्यादा सक्रीय होता है। जैसे किसी अवचेतन अवस्था में हो। जमा रह जाता है नींद में ही कहीं बहुत कुछ भीतर ही भीतर।
"उचटी हुई नींद के बाद जब लगती है आँख
अटकी रहती हो तुम भीतर बहार
जैसे नींद में वैसे ही जागते हुए
नहीं चलता मेरा कोई बस
मैं जान ही नहीं पाया ,कब उचटी नींद कब लगी आँख "
क्या कहूँ ................ सच कई दफा होता है ऐसा। जिसे दिन भर हम भुलाये रहते हैं वो ही ख़याल नींद में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं। समझ ही नहीं आता के हम जाग रहे हैं या सो रहे हैं।
मैं जान ही नहीं पाया ,कब उचटी नींद कब लगी आँख "
सच कुछ ख्यालों को भूलना बहुत ही मुश्किल होता है। मुए, नींद कड़वी कर जाते हैं आ करके।
जाने क्या क्या बुनते रहते हैं हम , कई दफा मन किसी एक सूक्ष्म बिंदु पर अटक जाता हैं।
और नीरज जी ने अपनी कविता में इसी ठहराव को रविवार का नाम दे दिया है। हैना प्यारी बात। आइये पढ़ते हैं इनकी एक और प्यारी सी कविता -पंक्तियों का रविवार
"लिखते हुए मैं नहीं जानता
कविता की एक पंक्ति
क्या होगी अगली पंक्ति
कुछ भी हो सकता है
आने वाले समय में यह भी हो सकता है कि खाली चला जाए हर वार
कविता में पंक्तियाँ जब चाहे मना लें रविवार "
हाहा सच बेहद ही खूबसूरती और सहजता से आपने उस कठिन समय को भी रच दिया जिस वक़्त कोई ख्याल शब्दों में ढलने को तैयार ही नहीं होता। जाने कितनी दफा पीटा है इन ख्यालों के आगे मैंने अपना सिर।
ख़याल भी तो बच्चों की तरह ही होते हैना।
सर, आज आपको पढ़कर यूँ लगा जैसे मैंने अपना मन पढ़ लिया। मुझे मुझसे मिलाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया नीरज सर जी ....
ईश्वर करे आपके शब्दों का ये भोलापन सदा यूँही बना रहे। आप यूँही लिखते रहें और खूब तरक्की करें । बस यही कामना है।
एक बार फिर से इतनी खूबसूरत कविताओं के लिए आपका धन्यवाद
आपकी
निवेद
bahut shukriya sir ji apka :)
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