होते हुए प्रेम में खलल के दस्तखत : उचटी हुई नींद
डॉ.नीरज दइया को पढऩा इस मायनों में सुकून भरा होता है कि वे आदतन ही प्रचलित मानकों को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ते हैं और कुछ ऐसा निकाल कर सामने रखते हैं, जो उपेक्षित रहा, अब तक नजरअंदाज किया गया हो। वे किसी को भी सिर्फ इसलिए नहीं मानते कि उनकी अग्रज पीढिय़ों ने गुणगान किया है। किसी को मानने के लिए उनके पास अपने कुछ औजार हैं। उनका अपना लोक है। अग्रज पीढ़ी की हदों को नापने की भी एक अनोखी दृष्टि है और कुछ नया करने के लिए समुचित मेहनत करने की ललक भी। इसीलिए कहा भी जाता है कि नीरज दइया का साहित्यिक-चरित्र है ही ऐसा जो उन्हें अचानक से विवादों के बीच खड़ा कर देता है। इसे बहुत ही सकारात्मक तरीके से समझा जाए तो यह कि उनके लिखे हुए को पढऩा तयशुदा फार्मेट से उबरना है, कुछ नया पाना है।
'उचटी हुई नींद' की कविताएं इससे भिन्न नहीं हैं। इस काव्य संग्रह के माध्यम से वे हिंदी में कविताएं लिखते हैं तो यह उनके प्रचलित स्वरूप से भी भिन्न है। राजस्थानी में ही लिखने वाले नीरज दइया का हिंदी कवि रूप इसमें मिलता है तो दूसरी ओर इस बार यहां नीरज दइया आलोचक नहीं है, प्रेम में पगे हैं। हालांकि कहीं-कहीं वे यहां भी कविता क्या होती है के सवाल से मुठभेड़ करते हुए अपने पाठक को यह भी सिखाने की कोशिश करते हैं कि कविता अमुक जगह होती है लेकिन फिर भी यहां नीरज दइया जितने प्रेमिल हैं, पहले नहीं दिखे और इस वजह से यह संग्रह खास बन जाता है।
प्रेम को उन्होंने बहुत सारे फ्रेम दिए हैं और प्रतीकों के माध्यम से उन हादसों पर भी संकेत किया है जो माने तो प्रेम गए लेकिन वास्तव में प्रेम से मिलते-जुलते सहानुभूति, दया इत्यादि थे। यहां कवि का संकेत बहुत ही गहरा है कि प्रेम का रिप्लेसमेंट सिर्फ प्रेम ही है, इसकी आड़ में जितनी बार भी दूसरी चीजें आएंगी समय के साथ खारिज होती जाएंगी, प्रेम के खांचे में सिर्फ प्रेम ही टिक पाएगा।
और वे जब कहते हैं, 'घटित होता है/ जब-जब प्रेम/पुराना कुछ भी नहीं होता/हर बार होता है नया/'
या के
'प्रेम के बिना नहीं खिलते फूल/कुछ भी नहीं खिलता बिना प्रेम के।'
तब प्रेम को समझने से अधिक समझाने की कोशिश करते हैं। प्रेम पर एक नए तरीके से नजर फेंकते से नजर आते हैं। वे पूरे संग्रह में प्रेम बहुत कम करते हैं। या तो प्रेम को परिभाषित करते हैं और प्रेम और अप्रेम के बीच भेदों को उजागर करते हैं या होते हुए प्रेम के दृश्य रचते हैं। नीरज दइया का प्रेम को समझने-समझाने का यह सलीका इन्हें प्रेम कवि के रूप में स्थापित तो करता है लेकिन प्रेमी नहीं, बहुत अधिक गहरे देखें तो वे प्रेक्षक हैं। उचटी हुई नींद के शीर्षक की तरह यह कविताएं भी उनकी प्रेम और प्रेम के बीच आने वाले दखल का परिणाम है।
नींद के उचट जाने के बाद होने वाली बेचैनी की बानगी है। वापस नींद नहीं आने तक नींद उड़ाने वालों के नाम जारी किए गए उलाहने हैं। यीधे-सीधे कहूं तो
ये कविताएं होते हुए प्रेम में पड़े खलल के दस्तखत हैं, एक दस्तखत देखिये, 'कभी कुछ लिखा/ कभी कुछ/ जो भी लिखा/ समय का सत्य था/ मैं था वहां/ तुम थी वहां...'
और इसी तरह गीत-2 में वे कहते हैं।
जो बात/ आज तक कही नहीं/ किसी संकोच के रहते/ रहा होगा कोई डर/ बात वही/ कह रही हो आज तुम/ दोस्तों के बीच/ गुनगुनाते हुए गीत/ बात यही/ बहुत पहले/ सुन चुका मैं/ अब भी डरता हूं मैं/ मैंने कभी प्रेम-गीत गाया नहीं।
और प्रेम का समय शीर्षक कविता में
'जब मैंने किया प्रेम/ वह समय नहीं था/ वह प्रेम था समय से पहले।'
ऐसी बहुत सारी कविताओं के माध्यम से प्रेम के इर्दगिर्द वे खूब सारे रंग रचते हैं और प्रेम को और अधिक खोलते जाते हैं, पारदर्शी बनाने की हद तक खोल देते हैं।
प्रचलित मान्यताओं के चौखटों को तोडऩे वाले गोताखोर नीरज दइया के लिए कविता रूपी औजार नया नहीं है लेकिन वे वस्तुत: गद्य के नजदीक रहे हैं और इस कृति के प्रेम कवि नीरज दइया का यह गद्य-प्रेम इन्हें आखिरी तक आते-आते कविता के खाते में आलेख जोडऩे का नवाचारी बना देते हैं। जो लोग नीरज दइया को जानते हैं, वे अंतिम की तीन आलेख टाइप कविता (गद्य-कविता) पूर्वज, पापड़ और विवश को पढ़ते वक्त इसे उनके किसी अगले सीक्वल की आहट बता सकते हैं। लंबी कविता के कई प्रयोग कर चुके नीरज दइया क्या अपनी उचटी हुई नींद का उपयोग इस तरह की गद्य-कविताओं के रूप में भी करेंगे?
यह सवाल उन्हीं के लिए छोड़ा जाना चाहिए। क्योंकि जब वे 'पिता' कविता में कोटगेट पर कविता लिखने नहीं लिखने का सवाल उठाते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है कि इन तीन आलेखों को शामिल ही सवाल उठाने के लिए किया हो। लेकिन इन सभी से अलग नीरज दइया की इन कविताओं से निकलते हुए उनके कभी प्रेमिल रहे होने की जो खबर हाईलाइट होती है, वह उनकी बहुत सारी प्रचलित छवियों को तोड़ती है, नये सिरे से सोचने के लिए मजबूर करती है।
डा.नीरज दइया जब आलोचना करते हैं तो भले ही उनके पास इतनी मजबूत लॉबी नहीं हो जो उनके लिखे हुए को चर्चा में में लाए लेकिन इन सभी से विचलित हुए बगैर वे पूरी जिम्मेदारी से लिखते हैं, शायद यह सोचकर कि समय की सतह पर जब कभी नीर-क्षीर का युग आएगा, उनके लिखे हुए को भी समझा जाएगा। ठीक उसी तरह, उनकी प्रेम कविताओं का यह संग्रह भी समय से अपने लिए एक दृष्टि की मांग तो करता ही है। मैं कामना करता हूं कि जिस स्तर पर जाकर डॉ.दइया ने प्रेम को समझा है, उसी स्तर के पाठक भी उन्हें मिले। शुभकामनाएं।
- हरीश बी. शर्मा
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