सुधीर सक्सेना के रचाव का आकलन करती तीन कृतियां • डॉ. नीरज दइया
⦁ शर्म की सी शर्त नामंजूर (सं. ओम भारती) पृष्ठ : 184 मूल्य : 295/- संस्करण : 2018
⦁ कविता ने जिसे चुना (सं. यशस्विनी पांडेय) पृष्ठ : 216 मूल्य : 295/- संस्करण : 2019
तीनों के प्रकाशक : लोकमित्र, 1/6588, पूर्व रोहतास नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032
साहित्य की यह एक त्रासदी है कि हमारे समय के रचनाकारों का समय पर आकलन नहीं होता है। पाठ्यक्रम पढ़ने-पढ़ाने वालों के लिए आधुनिक साहित्य का अभिप्राय प्रेमचंद और कबीर के नामों से दो-चार अधिक हुआ तो पांच-सात नामों के बाद रुका-सा रहता है। हम इक्कीसवीं शताव्दी में भी हिंदी साहित्य के शीर्ष बिंदुओं को पहचानते नहीं, संभवतः ऐसी ही न्यूनताओं को दूर करने के प्रयास में लोकमित्र से तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई है- जैसे धूप में घना साया (सं. रईस अहमद ‘लाली’), शर्म की सी शर्त नामंजूर (सं. ओम भारती) और कविता ने जिसे चुना (सं. यशस्विनी पांडेय)। हिंदी के ख्यातनाम रचनाकार सुधीर सक्सेना तीनों पुस्तकों के केंद्र में है। सुधीर सक्सेना की रचनात्मकता के विविध आयाम हैं, जिन्हें इन कृतियों में विभिन्न रचनाकार-साथियों द्वारा उद्घाटित किया गया है।
तीनों कृतियों के आवरण प्रसिद्ध कला निर्देशक प्रफुल्ल पळसुलेदेसाई द्वारा तैयार किए गए हैं जिनमें सुधीर सक्सेना की प्रफुल्लित छवियां मुस्कान बिखेरती हर्षित करने वाली हैं वहीं तीनों शीर्षक उत्सुकता जगाने वाले कहे जा सकते हैं। कृतियों पर बात करने से पहले जान लेते हैं कि संपादक क्या कहते हैं। ‘जैसे धूप में घना साया’ के संपादक प्रख्यात पत्रकार रईस अहमद ‘लाली’ लिखते हैं- “अपनी जिम्मेदारियों के अहसास के साथ सफर पर चलता है। उसमें उसके अलावा सब शामिल हैं। घर-परिवार के लोग, नाते-रिश्तेदार, दोस्त-यार, सहकर्मी-मातहत सब। वह मलंग रहा है। आज भी है। सड़क के किनारे पटरियों पर भी खा लेगा, जमीन पर भी सो लेगा, रेल के सामान्य डिब्बे में भी सफर कर सकता है। लेकिन दूसरों की चिंताओं को वह दिल से लेता है। उसे दूर करने की हर हद तक कोशिश भी करता है। भले ही उसकी जिंदगी में धूप हो, वह साया बनने को तैयार रहता है दूसरों के लिए।”
‘शर्म की सी शर्त नामंजूर’ के संपादक प्रसिद्ध कवि-आलोचक ओम भारती लिखते हैं- “वह कवि, अनुवादक, संपादक, इतिहासकार, उपन्यासकार, पत्रकार, सलाहकार इत्यादि है। वह पैरोड़ी बनाने, लतीफ़े गढ़ने, तुके मिलाने, चौंकाने और हंसाने में, कह देने में ही शह देने में भी माहिर है। वह शर्तें नहीं मानता और मुक्तिबोध के शब्दों का सहारा लूं तो जिंदगी में शर्म की सी शर्त उसे शुरु से ही नामंजूर रही है। वह अपना रास्ता खुद चुनता है, और जहां नहीं हो, वहां बना भी लेता है।”
‘कविता ने जिसे चुना’ की संपादिका चर्चित कवयित्री यशस्विनी पांडेय लिखती हैं- “प्रश्न उठता है कि सुधीर क्या है? संपादक, अनुवादक, इतिहासकार, लेखक, पत्रकार या... ? मेरी स्पष्ट राय है या कि मान्यता है कि सुधीर सबसे पहले कवि हैं, बाकी कुछ बाद में। उनका मिजाज, उनका सलूक और उनका सपना कवि का मिजाज, सलूक और सपना है। यही वजह है कि तमाम विकल्पों के बीच मुझे यही संगत लगा कि मैं संपादन की अपनी इस पहली कितान को शीर्षक दूं- कविता ने जिसे चुना...।”
इन तीनों कृतियों के संपादकों के मतों से स्पष्ट है कि सृजन, संपादन और अनुवाद आदि अनेक रूपों में सतत सक्रियता के रहते ‘दुनिया इन दिनों’ के प्रधान संपादक सुधीर सक्सेना ने अपनी दुनिया को निरंतर वृहत्तर करने का लक्ष्य रखा उसी का परिणाम इन तीनों कृतियों के संपादकीयों के अतिरिक्त सतत्तर आलेखों में देखा जा सकता है। इन आलेखों में मित्र रचनाकार सुधीर के नाम लिखे आत्मीय पत्र, कृतियों की भूमिकाएं, समीक्षाएं, विधावार आलेख-आकलन आदि एकत्रित हैं। इसे हिंदी साहित्य और खासकर सुधीर सक्सेना को चाहने वालों का सौभाग्य कहा जाना चाहिए कि वे पहली बार अपने किसी समकालीन रचनाकर पर इनता विशाल विशद आकलन पा रहे हैं। रचनाकारों को समग्रता के साथ हिंदी में देखने परखने के अनेक काम हुए हैं पर ऐसे बहुत कार्यों की आवश्यकता हैं।
सुधीर सक्सेना अपने सभी साथियों को इतना मान देते हैं कि उन पर मान करने को जी करता है। हम सब के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि हम सुधीर सक्सेना के समय में हैं। इन तीनों कृतियों के विविध आलेखों के साथ हम उन्हें काल के विभिन्न बिंदुओं से देखते-परखते हैं। वे नई दिल्ली, भोपाल, लखनऊ, रायपुर, बांदा, बस्तर, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों में आवाजाही करते हुए देश-विदेश की अनेक यात्राएं करते हुए घुमक्कड़ी प्रतीत होते हैं। उन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञान है और उनकी शब्दों पर गहरी पकड़ है। वे इतने पढ़ाकू हैं कि उनका अध्ययन उनकी रचनाओं और मुलाकातों में झलता है। उनका अनुभव और ज्ञान के साथ विविधता और निपुणता जानकर हम दंग रह जाते हैं। ऐसे में त्वरित प्रश्न भी मन का स्वभाविक है कि वे इन सब व्यस्थताओं और कार्यों के बीच पढ़ने-लिखने के लिए अवकाश कहां से और कैसे जुटाते हैं? क्या यह आश्चर्य नहीं है कि वे पत्रकारिता के साथ कवि-अनुवाद आदि रूपों में सतत कार्य करते रहे हैं! वे एक छोर से इतिहास को देखते-परखते हैं तो दूसरे से आदिवादी जनजीवन में जैसे जूझते हुए मनवता के गीत गाते हैं। कवि लीलाधर मंडलोई उनकी कृति ‘गोविन्द की गति गोविन्द..’ को जीवन साहित्य लेखन में अनूठी पहल मानते हुए लिखते हैं- ‘सुधीर की दृष्टि यथासंभव आर-पार जाती है। वो सचमुच जीवनी लेखक के रूप में संजीदा है। उसका यह काम इस सदी में अपनी अस्मिता, अपना मकाम पाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है।’
सुधीर सक्सेना के किंचित आकलनों में हलांकी उनके कवि-रूप पर अधिक प्रकाश डाला गया है, किंतु वे पत्रकार, संपादक, गद्य-लेखक, अनुवादक आदि के साथ एक व्यक्ति के रूप में जिस रागात्मकता के साथ जीवट जिंदाजिल इंसान के रूप में बीच-बीच में नजर आते हैं वह अति-महत्त्वपूर्ण है। इन तीनों कृतियों के माध्यम से सुधीर सक्सेना के कवि-मन को जानने-परखने के लिए अजय तिवारी, सुशील कुमार, डॉ. विनोद निगम, भरत प्रसाद, डॉ. बलदेव वंशी, ज्ञान प्रकाश चौबे, बली सिंह, नीरज दइया, सुवोध कुमार श्रीवास्तव, अरविन्द त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी, राजेन्द्र चंद्रकांत राय, अशोक मिश्र, हीरालाल नागर, नित्यानन्द गायेन, धनंजय वर्मा, हरीश पाठक, नासिर अहमद सिकंदर, उमाशंकर परमार, अर्पण कुमार आदि अनेक रचनाकारों के आलेख महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इन आलेखों में कृति केंद्रित और उनके समग्र आकलन भी है। प्रेम और ईश्वर को केंद्र में रख कर लिखी कविताएं अपने शिल्प और भाव-बोध से मित्रों को लुभाने वाली कही गई है। सुधीर सक्सेना ने ऐतिहासिक कविताओं और लंबी कविताओं पर विशेष कार्य किया है उनकी विशद चर्चा आलेखों में है तो उन के द्वारा मित्रों पर लिखी कविताओं की भी खूब ख्याति देखी जा सकती है।
सुधीर सक्सेना को किसी धारा या वाद में आबद्ध नहीं किया जा सकता है। वे मुक्त और स्वछंद विचरने वाले कविमना हैं। इन पंक्तियों के लेखक यानी मैंने उनके दस कविता संग्रह- ‘बहुत दिनों के बाद’ (1990), ‘इक्कीसवीं सदी बीसवीं सदी’ (1990), ‘समरकंद में बाबर’ (1997), ‘काल को भी नहीं पता’ (1997), ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ (2009), ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ (2012), ‘किरच-किरच यकीन’ (2013), ‘ईश्वर हां, नहीं तो ...!’ (2013), ‘धूसर में बिलासपुर’ (2015) और ‘कुछ भी नहीं है अंतिम’ (2015) से कुछ कविताएं राजस्थानी भाषा में अनुवाद हेतु चयन करने का इरादा किया तो कौनसी ली जाए और कौनसी छोड़ी जाए वाली बात हुई। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मजीद अहमद के चयन और संपादन में सुधीर सक्सेना की चयनित ‘111 कविताएं’ कृति भी लोकमित्र द्वारा प्रकाशित है। उनके यहां सभी महत्त्वपूर्ण और अलग-अलग आयाम को व्यंजित करती रचनाएं हमें मिलती हैं, जिस में हर कोई अपनी समझ-पसंद से चुनने का विकल्प पाता है। मैंने भी कुछ कविताएं चयनित कर अनुवाद पूरा किया और उनकी कविताओं के राजस्थानी अनुवाद-संचयन का नाम रखा- ‘अजेस ई रातो है अगूण’। जो उनकी कविता- ‘अभी भी लाल है पूरब’ का अनुवाद था। उन्हें पढ़ते हुए उनकी कविताओं पर एक आलेख- ‘आकंठ आत्मीयता में डूबे कवि’ मैंने भी लिखा जिसे संपादक ओम भारती ने ‘शर्म की सी शर्त नामंजूर’ में स्थान दिया है।
गौर करने लायक यह भी कि इस दौरान उनसे एक दो मुलाकातें हुई और हमारी आत्मीयता बढ़ती गई। वे मेरे बुलावे पर बीकानेर आए तो उन्होंने बीकानेर पर कुछ कविताएं लिखीं। वे जहां कहीं जाते हैं, जहां कहीं रहते हैं वहां का पर्यावरण उनसे जैसे वतियाता है, इसी का परिणाम है उनकी अनेक कविताएं और आलेख। उनकी कविताओं की सिन्हली अनुवादिका सुभाषिणी रत्नायक के आग्रह पर वे श्रीलंका गए और वहां से जुड़ी कृति ‘श्री लंका में दस दिन’ का जन्म हुआ। पुस्तक में सुभाषिणी रत्नायक का अलेख उनके आत्मीय संबंधों के साथ साहित्य-समाज के लिए सुधीर जी की उत्कंठा की अभिव्यक्ति है तो दिनेश कुमार माली अपने आलेख में सुधीर सक्सेना को हिंदी के सीताकांत महापात्र कहते हैं। सच में किसी कवि में बड़े कवि की छवि देखना या दिखाई देना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। सुधीर सक्सेना की इन कृतियों से गुजरते हुए हम बार बार अनुभव करते हैं कि एक इतना बड़ा रचनाकार हमारे बीच किस सहजता-सरलता से रहते हुए जैसे इतिहास रच रहा हो।
इन कृतियों से गुजरते हुए एक विशेष तथ्य यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि सुधीर सक्सेना ऐसे विराट व्यक्तित्व के धनी है जो सभी से स्थाई संबंधों और संपर्कों में यकीन रखते हैं। उनके रचनाकर्म के साथ उनका आत्मपक्ष उद्घाटित करते हुए लगभग सभी रचनाकार जैसे उनके अति-आत्मीय होने का बयान भी दर्ज करते रहे हैं। उनमें अगर हम रचनाकारों को किसी चुम्बकीय आकर्षण का अहसास होता है तो यह उनके रचनाकार की बहुत बड़ी खूबी है। यह सच है कि वे जितने बड़े रचनाकार हैं उससे भी अधिक भावुक, आत्मीय और ईमानदार इंसान भी हैं। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि मां शारदा की उन पर संभतः ऐसे ही अनेक गुणों के कारण कृपा रही है।
वे कवि के साथ पत्रकार और संपादक भी हैं। उनके पत्रकार और संपादक रूप पर दिवाकर मुक्तिबोध, दिनेश चौधरी, अशोक प्रियदर्शी, नसीम अंसारी कोचर आदि अनेक मित्रों के आलेख प्रकाश डालते हैं। उनकी कृति ‘मध्य प्रदेश में आजादी की लड़ाई और आदिवादी’ पर प्रख्यता लेखिका नासिरा शर्मा द्वारा लिखा गया आलेख महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है तो ‘गोविंद की गति गोविंद’ कृति पर लीलाधर मंडलोई और रमेश अनुपम के आलेख भी ध्यानाकर्पण का विषय कहे जा सकते हैं। इन किताबों में सुधीर जी को मित्र के रूप में स्मरण करते हुए डॉ. अंजनी चौहान, मोहम्मद युनूस, तेजिन्दर, अनिल जनविजय, सूरज प्रकाश, सतीश जायसवाल, वेद प्रकाश त्रिपाठी, राकेश अचल, रंजना सक्सेना आदि रचनाकार अपना मन खोलते हैं। उनके लेखन में साहित्य से इतर लेखन भी साहित्य का रंग लिए हुए है। वे माया से दुनिया इन दिनों तक के सफर में इतना कुछ विविध आयामी गद्य लिख चुके हैं कि उन्हें केवल पत्रकारिता से जुड़ा लेखन नहीं माना जा सकता है। विभिन्न प्रसंगों में हमारे रचनाकारों ने यह माना है कि उनके पत्रकारिता से जुड़े लेखन में भी संस्मरण-रिपोर्ताज-आलेख आदि साहित्य की कोटि में सहेजे जाने वाले लेखन के अंग हैं। वैसे सुधीर सक्सेना की शख्यियत ही ऐसी है कि उन्हें उनके हर कीर्तिमान पर उन्हें सलाम करने को जी करता है।
रईस अहमद ‘लाली’ ने ठीक लिखा है- ‘‘उनके दोस्तों में 16 साल का युवा भी शामिल हो सकता है और 90 साल का वृद्ध भी। ‘जनरेशन गैप’ जैसी कोई चीज उनके साथ किसी को महसूस ही नहीं हो सकती। उनके पास अपने, अपने जीवन और उससे इतर भी इतनी कहानियां हैं, इतने प्रसंग-अनुभव हैं कि कोई उनके साथ घंटों-घंटों गुजार सकता है। बिना बोरियत के, बिना उम्र के साम्य के।” इसका उदाहरण स्वयं लाली और यशस्विनी पांडेय खुद हैं। एक अभिभावक के रूप में सुधीर सक्सेना को रेखांकित करते हुए अपनेपन के साथ यशस्विनी के उन्हें स्कूटी से एयरपोर्ट से लाने और मार्ग में गिर जाने का प्रसंग साझा किया है वह यादगार-जीवट प्रसंग है।
सुधीर सक्सेना के व्यक्तित्व के विविध आयाम हैं और उनके विभिन्न रूप परस्पर इस प्रकार मिलेजुले हैं कि उन्हें पृथक-पृथक नहीं किया जा सकता है। संभवतः यही कारण है कि इन कृतियों में जिन मित्रों ने लिखा है वे उनके एक रूप पर मुग्ध होते होते बीच में दूसरे रूप का बखान आरंभ कर देते हैं। ऐसा होने पर यह सब अखरता नहीं वरन कवि पर प्रेम और श्रद्धा के भावों में द्विगुणित वृद्धि होती है। साथ ही यहां यह भी लिखना जरूरी है कि सुधीर सक्सेना का समग्र आकलन यहां भी पूरा नहीं हुआ है, यह तो बस आरंभ है। इसी क्रम में लोकोदय कवि शृंखला के अंतर्गत प्रकाशित- ‘यग सहचर- सुधीर सक्सेना’ (संपादक- प्रद्युम्न कुमार सिंह और ‘सुधीर सक्सेना : प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ (उमाशंकर सिंह परमार) कृतियां भी उल्लेखनीय हैं।
अभी सुधीर सक्सेना के विविध कार्यों की विशद पड़ताल शेष है और उनकी रचनात्मकता-रागात्मकता जारी है। ‘शर्म की सी शर्त नामंजूर’ के संपादक ओम भारती लिखते हैं- ‘चालीस साल के संग-साथ के बाद मैं आश्वस्त हूं कि मेरा यार सुधीर जमाने और बिरादरी के सलूक से बेफ्रिक अभी और लिखेगा, खूब लिखेगा और बेहतर से भी बेहतर लिखेगा। वहज यह कि उसने अपने आप से और दोस्तों से कई वायदे कर रखे हैं और यकीनी तौर पर वह ऐसी शख्सियत है, जिसके लिए कसमे-वायदे मायने रखते हैं, जिसने अपने शब्दकोश में रुकने को कोई ठौर नहीं दिया है।”
ऐसा भी नहीं है कि इन तीन कृतियों में समाहित आलेखों में सुधीर सक्सेना पर अब तक लिखे सभी आलेख समाहित हो गए हैं। इन आलेखों के अतिरिक्त भी समय-समय पर उन पर अनेक रचनाकारों ने आलेख लिखें हैं, उन सभी का संचयन भी होना चाहिए। कहना होगा कि यह और ऐसा कार्य सुधीर सक्सेना पर भविष्य में होने वाले समग्र कार्य की रूपरेखा तैयार करने में मददगार होगा। किसी भी कार्य की उपलब्धि यही होती है कि वह भविषय के लिए वह संभवानाओं के द्वारा खोले। यह तीनों कृतियां हिंदी आलोचना को एक आमंत्रण जैसा है कि सुधीर सक्सेना के विविध रूपों पर विस्तार और गहराई से कार्य किया जाना चाहिए। अंत में सुधीर सक्सेना की ही पंक्तियां- ‘सृष्टि के आदि में/ सिर्फ प्रेम था/ सृष्टि के अंत में/ सिर्फ प्रेम होगा/ दोनों छोरों के बीच/ खड़ा नजर आऊंगा मैं/ अविचल।’ (प्रेम)
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