Sunday, July 06, 2014

"अधोरी", "मेरा शहर" एवं "अनंत इच्छाएं" कृतियां



मधु आचार्य ‘आशावादी’ की तीन किताबें

मधुजी सभी रूपों में श्रेष्ठ-सर्वश्रेष्ठ है

० डॉ. नीरज दइया

    
  साहित्य की प्रमुख विधाओं में कविता, कहानी और उपन्यास को अग्रणी माना जाता रहा है। इन लोकप्रिय विधाओं की परंपरा और विकास की अपनी सुदीर्ध यात्रा रही है। नाटक और पत्रकारिता के क्षेत्र में यश्स्वी मधु आचार्य ‘आशावादी’ ने विगत वर्षों में बेहद सक्रियता दर्शाते हुए अनेक विधाओं में सृजन कार्य किया है। एक के बाद एक अथवा अनेक रचनाएं एक साथ रचने वाले मधुजी ने अपनी इस समयावधि में अन्य कवियों, कहानीकारों और उपन्यासकारों की तुलना में अधिक सक्रियता से लिखा है। वे एक साथ अनेक कृतियों को अपने पाठकों के समक्ष लाते रहे हैं। मधु आचार्य मूलतः पत्रकारिता-कर्म से जुड़े है। दिन-रात समाज, शहर, प्रांत, देश और दुनिया पर नजरें रहती हैं। अपने घर-परिवार, संपर्क-संबंधों के साथ मित्रों से आत्मिक जुड़ाव में समय देने के उपरांत मिलने वाले समय में पत्रकारिता के साथ साहित्य-साधना की सक्रियता आश्चर्यजनक और चकित करने वाली लगती है। वे इतने व्यस्थ रहने के बाद भी सृजन के लिए एकांत और अवकाश कैसे जुटा लेते है। इस सक्रियता की निरंतरता के लिए कामना करता हूं।
      ‘मेरा शहर’ मधु आचार्य का तीसरा हिंदी उपन्यास है, ‘हे मनु।’, ‘खारा पानी’ के साथ राजस्थानी उपन्यास ‘गवाड़’ को भी इस यात्रा में शामिल करें तो कहेंगे यह चौथा उपन्यास है। समीक्षा में प्रत्येक रचना के साथ निर्ममता अपेक्षित है। अस्तु प्रथम तो यह विचार किया जाना चाहिए कि "मेरा शहर" उपन्यास विधा के मानदंडो की कसौटी पर कैसा है? यह प्रश्न आश्चर्यजनक लग सकता है कि मेरा प्रथम प्रश्न यह है कि जिस रचना को उपन्यास संज्ञा दी गई है वह उपन्यास है भी या नहीं। मित्रो! ‘मेरा शहर’ उपन्यास को विधा के रूढ साहित्यिक मानकों की कसौटी पर कसते हुए हमें लगेगा कि इसमें उपन्यास के अनेक घटक अनुपस्थित है। इस अनुपस्थित के साथ ही अनेक नवीन घटक एवं स्थापनाएं यहां उपस्थित है। उपन्यास के जड़ होते जा रहे फार्म में यह रचना मूल में नवीन संभावनाएं प्रस्तुत करती है। कहना चाहिए कि यहां विधा को तलाशते तराशते हुए मधुजी ने अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों की भांति इस उपन्यास में भी कुछ नया करने का साहस दिखलाया है। उत्तर आधुनिक उपन्यास की संकल्पना और विचारों के परिपेक्ष में यहां नए आयामों को उद्‍घाटित और परिभाषित होते हुए देखा जा सकता है।
‘मेरा शहर’ यानी मधु आचार्य ‘आशावादी’ का शहर- बीकानेर। इस उपन्यास का नाम ‘मेरा शहर’ के स्थान पर ‘बीकानेर’ भी तो हो सकता था। यह हमारे शहर से जुड़ा उपन्यास है। यह शहर बीकानेर तो हम सब का है, यानी हमारा शहर है। किसी भी रचना में शीर्षक भी महत्त्वपूर्ण होता है, और उपन्यासकार ने यहां संज्ञा का विस्तारित रूप सर्वामिक घटक जोड़कर किया है। अंतरंगता को साधती इस संज्ञा में निजता का अहसास समाहित किया गया है। किसी नियत भू-भाग या क्षेत्र विशेष से परे असल में भूमंडलीकरण के इस दौर में मेरा शहर में विश्व-ग्राम के लिए एक स्वप्न की आकांक्षा समाहित है। बीकानेर की यशगाथा के इस स्वप्न को किसी सधे गायक सरीखे सुर में गाने और साधने का सराहनीय प्रयास मधुजी ने किया है। आकार में छोटा-सा दिखने वाला यह उपन्यास अपने प्रयास में निसंदेह बहुत बड़ा और विशालकाय किसी उपन्यास से कमतर नहीं है।
      ‘मेरा शहर’ उपन्यास शिल्प और संवेदना की दृष्टि से राजस्थानी उपन्यास ‘गवाड़’ का ही दूसरा प्रारूप अथवा नई पहल इस रूप में कहा जाना चाहिए कि इस में उत्तर आधुनिकता का परिदृश्य अपनी जड़ों को देखते हुए संजोने का प्रयास किया गया है। उपन्यास में मेरा शहर की संकल्पना को विश्व-भूभाग में प्रेम और मानवीय गुणों के पुनरागमन-पाठ के रूप में पढ़ा-देखा जाना चाहिए। व्यक्तिगत नामों और जातिय विमर्शों के स्थान पर यहां सभी पात्रों-संकल्पनाओं को उपन्याकार ने चित्रकार बनते हुए विभिन्न भावों में जैसे रंगों को प्रस्तुत करते अधिकाधिक अमूर्त करने का प्रयास किया है। हिंदु-मुस्लमान, सिख-इसाई अथवा किसी भी धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्ति को ‘मेरा शहर’ उपन्यास में एक ऐसा पाठ उपलब्ध होता है जिसे गीता, कुरान, गुरु ग्रंथ साहेब अथवा बाइबिल का आधारभूत पाठ अथवा मानवता का मर्म कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं है।
      किसी भी औपन्यासिक कृति में राजनीति और धर्म का निर्वाहन बड़ा कठिन माना जाता है और ‘मेरा शहर’ उपन्यास की यह सफलता है कि मधु आचार्य बेहद संयत भाव से दोनों को साधने का प्रयास किया है। मेरे शहर की सृजना में जो स्वप्न साकार हुआ है उसे बरसों पहले हमारे ही शहर बीकानेर के अजीज शायर मेरे गुरु अज़ीज साहब के कलाम में देखा जा सकता है- “मेरा दावा है सारा जहर उतर जाएगा, / दो दिन मेरे शहर मेंठहर कर तो देखो।” मित्रो! इसी तर्ज पर मेरा भी दावा है कि ‘मेरा शहर’ उपन्यास को पढ़कर तो देखो।
      अब बात करते है कहानी संग्रह की। सात कहानियां का इंद्रधनुष है-‘अघोरी’। आचार्य के पूर्व कहानी संग्रह ‘सवालों में जिंदगी’ के पाठक जानते हैं कि वे कहानी में अविस्मरणीय चरित्रों की कुछ छवियां और हमारे आस-पास के जीवन-प्रसंगों को बेहद सरलता-सूक्ष्मता से शब्दों में रचते हुए जैसे रूपायित करते हैं। जीवन से जुड़ी इन कहानियों की चारित्रिक सबलाएं और जीवंता में जूझती और आगे बढ़ती दिखाई देती है तो निश्चय ही हमें कहीं-कहीं प्रख्यात कथाकार यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ का स्मरण हो आता है। इसे परंपरा विकास के रूप में देखा जाना चाहिए।
      जीवन-यात्रा की पूर्णता मृत्यु पर ही होनी है। जीवन की त्रासदी है कि इस यात्रा में संसार अपना लगता है और ऐसा ही अपनापन जीवन के प्रति ‘कोहरा’ कहानी में प्रगट हुआ है। अनेकानेक विचारों को सामाहित किए यह कहानी संवादों द्वारा जहां अपनी कथा में अनेक विचारों का प्रस्तुतिकरण करती है वहीं इस में पाठकों के लिए पर्याप्त आकाश है। कहानीकार ने अपनी किसी घटना को बयान करते हुए इसे इस कौशल के साथ रचा है कि पाठकों को अपनी अनेकानेक भावनों को खुलने के साथ ही जैसे आस्वाद को अनेक रंगों में समाहित किया है।       ‘सन्नाटा’ कहानी में सन्नाटे के रूप में अमूर्त पात्र की नवीन सृजना है। इसमें कर्मवाद से विमुख व्यक्ति को पागल और भिखारी मान लिए जाने की त्रासदी है, वहीं ऐसे व्यक्ति का चरित्र, चिंतन और दर्शन भी मर्मस्पर्शी है।
      उत्तर आधुनिक विर्मश के पैरोकारा मधु आचार्य ‘आशावादी’ कहानी ‘अघोरी’ और  ‘उजड़ाघर’ में भूत की संकल्पना में भारतीय जनमानस में परंपरागत और रूढ हुई विचारधारा को लेते हैं। विज्ञान के विकास और ज्ञान के प्रसार के उपरांत भी धर्मभीरू जनता के विश्वासों और अंतस में समाहित प्राचीनता का वितान अब भी फैला है उसका क्या किया जा सकता है? इन कहानियों की पृष्ठभूमि में जैसे विगत की काफी कहानियां समाहित है। एक में दूसरी और दूसरी में तीसरी कहानी जैसे जीवन के विगत पृष्ठों को खोलती हुई हर बार वर्तमान में पहुंच कर जीवन के मंगलमय होने की कामना के साथ किसी क्षितिज तक ले जाने का कौशल रखती है। मधु आचार्य के पात्र यथार्थ की भूमि से परिचित जीवन में स्वपनों के फलीभूत होने की कामनाओं का संसार लिए संघर्ष करते हैं। यहां कुछ समझौतों के साथ कुछ फैसले भी हैं। कहानी ‘समझौता’ में निम्न मध्यवर्गीय आर्थिक रूप से पिछड़े पात्रों का स्वाभिमानी संसार है तो सामाजिक प्रतिरोध के उपरांत भी अपने लक्ष्य को पाने की अदम्य अभिलाषा के रहते सहज-सजग दृष्टिकोण भी। ‘नटखट संवेदना’ कहानी में युवा पीढी द्वारा संबंधों में जाति और धर्म के बंधनों को बेमानी सिद्ध किया गया है वहीं इससे नवीनता से होने वाली पीड़ा का भी मार्मिक चित्रण किया गया है।
      मधु आचार्य की रचनाओं के आस्वाद में जैसे बारंबार इस सत्य से साक्षात्कार होता है कि लेखक का अपना व्यापक अनुभव संसार है। इन कथात्मक रचनाओं में कहीं नाटकार-रूप यत्र-तत्र मिलता है। संवाद, पात्रों और दृश्यों की चित्रात्मकता में विधागत सूक्ष्मता के स्थान पर उनका नाटकार होना ही संभवत स्थूलता में अभिव्यंजना के अनेक रंग उपस्थित करता है। इन सब से इतर कविता में नाटकीयता के स्थान पर अंतरंगता में समाहित भावों का उद्रेग और आत्मीयता प्रभावित करती है। उनके कवि-कर्म पर मेरी पूर्व उक्तियों का यहां स्मरण कराना चाहता हूं- कविताएं नए शिल्प निराली भाषा में सहजता एवं सरलता से सामाजिक यर्थाथ की विश्वसनीय प्रस्तुति है। चिंतन के स्तर पर मधुजी की समर्थ छोटी-छोटी कविताएं बिना किसी काव्य उलझाव के रची है। इनमें काव्य-कला का दृष्टिगोचर न होना ही उनकी कला का वैशिष्ट्य है।
किसी भी लोकार्पण समारोह में पत्रवाचन की भूमिका बेशक किसी विज्ञापन जैसी समझी जाती है और बहुत बार ऐसा होता भी है। किंतु यहां इतर करने का प्रयास किया गया है और इसी क्रम में अब इस सवाल पर विचार करते हैं कि मधु आचार्य ‘आशावादी’ जब विविध विधाओं में लेखन करते हैं तो उनकी केंद्रीय या प्रिय विधा किसे कहा जाए। इसका कोई एक जबाब तो स्वय मधुजी देंगे। मेरा मत है कि कविता, कहानी और उपन्यास की इन किताबों को यदि क्रम देना हो तो किसी पहले और किसे बाद में रखा जाना उचित होगा, यह कहना सरल नहीं है। यहां यह सवाल तो उचित है कि मधु आचार्य ‘आशावादी’ कवि रूप में बेहतर है या कथाकार रूप में। आज आपकी चार नई किताबें बस आईं है और  यह यात्रा जारी है, जारी रहेगी। आज दिया गया हमारा कोई भी जबाब संभव है भविष्य में हमे बदलना पड़े। अस्तु सभी सवालों, विचारों और बातों को गुमराह करने वालों का कथन ही स्वीकार्य करते हुए उनके स्वर में अपना स्वर मिला कर कह सकते हैं- मधुजी सभी रूपों में श्रेष्ठ-सर्वश्रेष्ठ है। मित्रो! किसी भी रचना और रचनाकार के विषय में त्वरित टिप्पणी से पाठ की संभावनाओं को संपूर्णता में नहीं देखा-परखा जा सकता। रचना की समग्रता में समाहित अनेकानेक आरोह-अवरोह को संयत भाव से जानना-समझना अवश्यक होता है और उसके लिए तनिक अवकाश की आवश्यकता होती है। यह अवकाश भी व्यक्तिसापेक्ष होता है।
      इस लोकार्पण-समारोह की भव्यता असल में रचनात्कता की भव्यता भी कही जा सकती है। मेरा मानना है कि मधु आचार्य ‘आशावादी’ के साहित्यिक-अवादन पर चर्चा के सभी मार्ग खुले हैं। इस मार्ग के विषय में आज आपके समक्ष बस कुछ संकेत किए हैं। यह हमारा प्रवेश है, यह यात्रा सुखद होगी ऐसी कमाना के साथ मैं विराम लेने से पूर्व पुस्तकों के प्रकाशक सूर्य प्रकाशन मंदिर को बधाई के साथ विगत स्नेहिल-स्मृतियों में आदरणीय सूर्यप्रकाश जी बिस्सा को स्मरण कर उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूं।

डॉ. नीरज दइया
 06 जुलाई, 2014

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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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